बेहद बेशकीमती है Kashmir की कानी शॉल, बनाने में लग जाते हैं कई साल, लाखों में है कीमत
यह एक ऐसी रंग बिरंगी शॉल है जिसका इतिहास मुगलों के जमाने जितना पुराना है और इसे बनाने में एक महीने से लेकर साल भर से ज्यादा का वक्त भी लग जाता है। आज इसे कश्मीर की खूबसूरत वादियों में तैयार किया जा रहा है। बता दें, पश्मीना ऊन से तैयार होने वाली इस शॉल को बनाने के लिए लकड़ी की सलाइयों का इस्तेमाल किया जाता है, जिन्हें कानी कहते हैं। मुगल शासन काल में भी इसे खूब पसंद किया जाता था। अपने सैकड़ों साल के इतिहास को समेटे हुए इस प्राचीन कला में भारत के कारीगर आज नए रंग भरने में जुटे हैं। आइए जानते हैं कि क्या कुछ है इसकी खासियत और कैसे भारत पहुंची थी यह कला।
कैसे बनाई जाती है कानी शॉल?
15वीं शताब्दी में पहली बार फारसी और तुर्की बुनकर इस कला को कश्मीर लाए थे। हमेशा से ही इसकी बुनाई के लिए कारीगरों में धैर्य का होना बहुत जरूरी रहा है। वजह है कि कई बार एक शॉल को तैयार करने में ही 3-4 साल का वक्त बीत जाता है। इस दौरान उन्हें दिन में 6-7 घंटे काम करना होता है और एक शॉल को अपनी मेकिंग के दौरान एक दो नहीं, बल्कि 3-4 कारीगरों के हाथों से गुजरना पड़ता है।
इसका प्रोसेस काफी हद तक किसी कालीन की बुनाई जैसा ही होता है। एक दिन में यह 1-2 सेंटीमीटर ही तैयार हो पाती है, बाकी यह इस बात पर भी निर्भर करता है कि कारीगर को कैसे डिजाइन बनाने के लिए दिया गया है। जाहिर है जितना बारीक डिजाइन होता है, उसे बनाने में उतना ही ज्यादा वक्त लगता है।
क्या है इसकी खासियत?
कानी शॉल की सबसे खास चीज इसका रंग सिद्धांत (Color Theory) है, जो कि हमेशा से ही प्रकृति से प्रेरित (Inspired By Nature) रही है। आज कानी शॉल को श्रीनगर से करीब 20 किलोमीटर दूर, एक छोटे-से गांव कानीहामा (Kanihama) से एक बार फिर से जान फूंकने का काम किया जा रहा है। कहना गलत नहीं होगा, कि पुरानी कला में नया रंग भरते, भारत के कारीगरों का वाकई जवाब नहीं है।
पीएम मोदी के वार्डरोब में भी शामिल
कानी शॉल लंबे वक्त से भारत के राजा-महाराजाओं की पोशाक में शामिल रहा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कंधे पर भी आपने कई बार इस शॉल को देखा होगा। इसे बनाने की अनूठी कला के बारे में कश्मीर के आठवें सुल्तान गयास-उद-दीन ने ज़ैन-उल-अबिदीन से वाकिफ कराया था। उसी के बाद से यह दुनियाभर में कई लोगों के दिलों पर कब्जा किए हुए है। बता दें, मुगल राजाओं, सिख महाराजाओं और ब्रिटिश अभिजात वर्ग की शोभा बढ़ाने में इस शॉल की बड़ी भूमिका मानी जाती थी।