साहित्यकार निर्मल वर्मा की 95वीं जयंती आज, भारतीय संस्कृति के प्रति रहा अगाध अनुराग
कथाकार व ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित साहित्यकार निर्मल वर्मा की जयंती 3 अप्रैल को है। अपने किस्म के अनूठे लेखक निर्मल अगर जीवित होते तो 95 साल में प्रवेश कर जाते। उनसे अलीगढ़ के वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. प्रेमकुमार का आत्मीय संबंध था। प्रेमकुमार ने निर्मल वर्मा से अपनी मुलाकात की यादें एक लेख के माध्यम से साझा कीं। रोचक बात यह है कि लेखकीय जीवन के आखिरी दौर में जिस निर्मल वर्मा को भारतीय संस्कृति के प्रति अगाध अनुराग के लिए जाना जाता था, उन्होंने कभी वामपंथ की सेवा की थी।
प्रेम कुमार कहते हैं कि जब तक दुनिया में वह (निर्मल वर्मा) रहे, तब तक उनसे बातचीत होती रहती थी। खुद निर्मल के शब्दों में ” पहली कहानी तब लिखी जब मैं सेंट स्टीफंस कॉलेज दिल्ली में विद्यार्थी था। नहीं, उसका नाम अब याद नहीं। पार्टीशन के बाद करोल बाग में जहां हम रहते थे, वहीं मैं पढ़ता भी था। एक प्राइवेट कॉलेज में हिस्ट्री और पॉलिटिकल साइंस पढ़ाता था वहां। उन्हीं दिनों कुछ अंग्रेजी अखबार चाहते थे कि मैं उनमें हिंदी पर लिखूं। कई हिंदी पुस्तकों की अंग्रेजी में समीक्षाएं लिखी थीं तब। लेकिन मेरा मुख्य काम कम्युनिस्ट पार्टी में था। तब मैं पार्टी का सदस्य था। 1950-54 तक काफी समय पार्टी के कार्यों में ही बीता था। शुरुआती वर्षों में काफी कुछ लिखा, पर सब बिना योजना के लिखा। फिर 1957 में राज्य सभा में अनुवादक का काम मिल गया। पहली सुचारु नौकरी-दस से पांच काम लगा। राज्य सभा में जो डिबेट होती थीं, मैं उनका हिंदी अनुवाद करता था।
59 में चेकोस्लोवाकिया गया। ओरियंटल इंस्टीट्यूट ने आमंत्रित किया था। वहां आठ वर्ष रहकर कई चेक लेखकों- मिलान कुन्देरा, इवान क्लीना, बासलाम, हर्विल आदि की रचनाओं का हिन्दी में अनुवाद किया। चेक पृष्ठभूमि पर मेरा पहला उपन्यास, ”वे दिन” आया। वह लिखा यहीं था दिल्ली में। तब दो साल की छुट्टी पर आया था। चेकोस्लोवाकिया जाने से पहले ”परिंदे” 58 में आ गई थी। समकालीन हिंदी लेखकों में नरेश मेहता, मनोहर श्याम जोशी, श्रीकांत वर्मा मेरे दोस्त थे। उन्हीं के साथ रहता था। नरेश जी ने ”कृति” शुरू की तो उसके लिए लेख और कहानियां लिखीं। सबसे पहली कहानी ”कल्पना” पत्रिका में छपी ”रिश्ते”। मेरी मां या पिता ने यह आग्रह नहीं किया कि मैं नौकरी करूं। उन्हें आर्थिक कठिनाई नहीं थी और उन्होंने मुझे कुछ भी करने या न करने की खुली छूट दे रखी थी। पार्टीशन के बाद करोल बाग में जहां हम रहते थे, वहीं मैं पढ़ता भी था। एक प्राइवेट कॉलेज में पढ़ाकर अपना जेब खर्च निकाल लेता था।
नई कहानी आंदोलन से उनके जुड़ाव, परिंदे को उस आंदोलन की प्रथम रचना घोषित किए जाने और उस आंदोलन की पृष्ठभूमि, भूमिका व प्रदेश के बारे में तब मैंने निर्मल जी से कुछ सवाल पूछे थे। लगा कि उन्हें अच्छी तरह मालूम है कि किस सवाल पर क्या और कितना कहना है, कब रुककर अगला सवाल पूछे जाने के लिए अनकहे कहा जाना है। उस आंदोलन से अपने जुड़ाव को याद करते हुए वे बोले- किसी एक घटना या क्षण के बारे में कहना तो मुश्किल है। जब आप किसी आंदोलन के प्रवाह में होते हैं, तब पता नहीं चलता कि आप उसका हिस्सा हैं। बाद में इतिहासकार या आलोचक सिद्ध करते हैं कि आंदोलन था। यह सोचकर मुझे फ्रेंच उपन्यास- ”ब्लैक एंड व्हाइट” का ख्याल आ जाता है। उसका एक पात्र वाटरलू के मैदान में घूमता चला आता है ।अचानक देखता है कि वहां फ्रेंच और अंग्रेजी सेनाओं के बीच भिड़ंत हो रही है। उसे नहीं मालूम कि वह एक ऐतिहासिक घटना से गुजर रहा है।
बाद में जब लोग उसे बताते हैं तो उसे लगता है ऐसा कुछ था! मेरी हालत उस दौरान कुछ वैसी ही थी। मुझे तो बाद में पता चला कि मैं ”नई कहानी” आंदोलन में शामिल था। उन दिनों साहित्य का केंद्र दिल्ली नहीं था। नई कहानी के बड़े लेखक इलाहाबाद में रहते थे। नई कहानी आंदोलन की प्रमुख पत्रिकाएं वहीं से निकल रही थीं। नई कहानी के लेखकों से मेरा खास मिलना-जुलना भी नहीं होता था। मेरी मित्र-मंडली कवियों की थी-नरेश मेहता, रघुवीर सहाय, मनोहरश्याम जोशी…। विरोधाभास ही जान पड़ता है यह कि मेरा मित्र-मंडल कवियों का ही अधिक था, कहानीकारों का नहीं। छप्पन-सत्तावन में ”कल्चरल फोरम” नाम से एक संस्था बनी थी जिसमें सांस्कृतिक कार्यक्रम हुआ करते थे। उस संगठन को चलाने में देवेंद्र ने मुख्य भूमिका निभाई थी। कृष्ण बलदेव वैद्य, भीष्म साहनी, जोशी आदि सब लोग उसमें आया करते। मैं भी वहाँ कहानियां सुनाता था, सुनता था।
अप्रकाशित रचनाओं के संग्रह का विमोचन 3 अप्रैल को
निर्मल वर्मा के असंकलित और प्रकाशित संग्रह का विमोचन उनकी जयंती पर 3 अप्रैल को होगा। साहित्यकार डॉ. प्रेमकुमार ने बताया कि इसका संपादन उनकी पत्नी गगन गिल ने किया है। उन्होंने कहा कि साहित्य को लेकर उनकी निर्मल वर्मा की पत्नी से बातचीत होती है।