हुनर से मिली दिव्यांग कारीगरों को नई पहचान, संभाव उत्सव 2.0 में दिखाई प्रतिभा

कश्मीर की प्राचीन सोजनी कला को नया जीवन देने वाले तारिक अहमद मीर ने कहा कि पहले ताने सुनने को मिलते थे, लेकिन अब हमारी कहानियां मिसाल के रूप में समाज के सामने हैं। हम सभी कलाकारों को लोग हुनर से पहचानते हैं न कि दिव्यांगता से।
तारिक अहमद मीर बडगांम से अपने हुनर का प्रदर्शन दिखाने अमृता शेरगिल मार्ग स्थित जम्मू कश्मीर हाउस में ‘संभाव उत्सव 2.0’ में आए हैं। सोमवार तक चलने वाले इस उत्सव का आयोजन जम्मू कश्मीर रेजिडेंट कमीशन की ओर से किया जा रहा है। तारिक हाथों से दिव्यांग होने के बावजूद भी इतनी बारीकी से शॉल में धागा पिरोते हैं कि हर कोई दंग रह जाता है। उसमें कश्मीर की संस्कृति साफ झलकती है। उनके हाथों की महीन कारीगरी उत्सव में आकर्षक का केंद्र बनी हुई है।
अगर आप भी जम्मू कश्मीर की संस्कृति से रूबरू होना चाहते हैं तो यह उत्सव आपके लिए बिल्कुल खास है। यहां कलाकार सांस्कृतिक कलात्मक विरासत, व्यंजन, कृषि और हस्तशिल्प उत्पादों का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं। एक अन्य कलाकार मीर मायूसी के साथ कहते हैं कि मौजूदा पीढ़ी इस दिशा में कम ध्यान दे रही है। वह कहते हैं कि वर्ष 2012 में टूटे मनोबल को एकत्रित कर उन्होंने ही घर पर शॉल पर कलाकारी करनी शुरू कर दी थी। उन्होंने इसे लेकर एक संस्था बनाई।
इसमें केवल दिव्यांग कारीगरों को ही शामिल किया गया। वह कहते हैं कि उन्होंने दिव्यांगता को लेकर दिए जाने वाले तानों को ही हौसला बना लिया है। अभी उनके साथ 40 कारीगर व 200 परिवार इस प्राचीन कला को संजोने का कार्य कर रहे हैं। उन्होंने बताया कि एक शॉल को बनाने के लिए एक महीने से तीन साल तक लग जाते हैं। ऐसे में इनकी कीमत तीन से पांच लाख रुपये तक है।
दिव्यांगों को दे रहे रोजगार
सोजनी कारीगर पश्मीना शॉल पर जटिल पैटर्न बुनने के लिए महीन सुइयों और रेशम के धागों का उपयोग करते हैं। परंपरागत रूप से शॉल पर सुई से पत्तियां, फूल और निर्जीव डिजाइन बने होते हैं, लेकिन मीर ने इसे बदलने का प्रयास किया और जटिल सुई का इस्तेमाल करके साड़ी पर भी कारीगरी की शुरुआत की। उन्होंने बताया कि सभी जरूरी डिग्री होने के बावजूद दिव्यांगता को कमी बताकर उन्हें नौकरी नहीं मिली। ऐसे में उन्होंने अपने जैसे लोगों को रोजगार के अवसर देने की ठानी। शॉल आदि बनाकर उनकी संस्था को प्रतिवर्ष दस लाख रुपये तक की आय होती है।
स्टार्टअप को मिल रहा बढ़ावा
कश्मीरी विलो लकड़ी से बने बैट युवाओं में खासे लोकप्रिय हैं। अनंतनाग से आए मो. नियाज बताते हैं कि उनके द्वारा बनाए बैट देश ही नहीं, बल्कि विदेशों में भी निर्यात होते हैं। उनके बैट आईसीसी से स्वीकृत हैं। इन बैट की कीमत दो हजार से 15 हजार रुपये के बीच हैं। उन्होंने कहा कि अधिकतर खिलाड़ी मध्यम परिवार से आते हैं। ऐसे में उन्होंने इसकी कीमत को नियंत्रित किया है। इससे कश्मीर में स्टार्टअप को बढ़ावा मिल रहा है। यह नए रोजगार के अवसर पैदा कर रहा है।
सांस्कृतिक कार्यक्रम का भी लुत्फ
संस्कृति का जश्न मनाने के लिए लोग यहां बड़ी संख्या में पहुंच रहे हैं। कश्मीरी गीतों की धुन जैसे ही तेज होती है तो वह थिरकने को मजबूर हो जाते हैं। कश्मीरी पोशाक पहने कलाकार मंच पर नृत्य के माध्यम से समां बांध देते हैं। कलाकार फिरदौस कहती हैं कि वह पहली बार दिल्ली आईं हैं। यहां आकर अपनी संस्कृति प्रस्तुत करना किसी सपने से कम नहीं हैं। जम्मू कश्मीर की प्रधान रेजिडेंट कमिश्नर डॉ. रश्मि सिंह ने कहा कि इस तरह के उत्सव कलाकारों का मनोबल बढ़ाने का काम करते हैं। इनकी कला को नई पहचान मिलती है।
पारंपरिक व्यंजनों की खुशबू से महका परिसर
उत्सव में कश्मीरी पारंपरिक व्यंजनों की खुशबू लोगों को अपनी ओर खींच रही है। यहां कश्मीरी सफेद राजमा, दाल, चावल, शहद, फलों का स्टॉल लगाने वाली मसरत जन बताती हैं कि पहले वह इनकी खेती करती थी, लेकिन जब से वह एनजीओ से जुड़ी तो उनके जीवन में बड़ा बदलाव आ गया। पहले वह दूसरों पर निर्भर थीं, लेकिन अब आत्मनिर्भर बन गई हैं। उन्होंने अपने गांव के लोगों को भी रोजगार दिया है। उन्होंने बताया कि बीते डेढ़ साल में वह कई विदेशी लोगों को भी कश्मीरी दालों का स्वाद चखा चुकी हैं।