मुंबई-सूरत ही नहीं, पारसियों के पास थी इस शहर की भी आधी संपत्ति, पढ़े पूरी खबर

पारसी समुदाय के साथ एक विडंबना है. यह दुनिया की संभवतः एकमात्र कौम है जिसकी आबादी लगातार घट रही है. आजादी से पहले यह समुदाय देश के कई शहरों में कारोबार कर रहा था, लेकिन धीरे-धीरे यह सिमटने लगा. मुंबई के अलावा सूरत और पुणे में इनकी आबादी बची है. अन्य शहरों में ये करीब-करीब खत्म हो गए हैं. आज एक ऐसे ही शहर की कहानी जिसे देश के औद्योगिक नक्शे पर उतारने में इस समुदाय का अहम योगदान रहा. इस समुदाय के कारोबारी ने ही यहां 18वीं शताब्दी में पहली मिल लगाई. यहां कॉलेज खोले गए. यहां इस समुदाय की पहल पर ही बिजली और टेलीफोन की सेवा पहुंची लेकिन आज शहर में पारसी समुदाय का एक भी सदस्य नहीं है.

दरअलस, यह पूरी कहानी है महाराष्ट्र के शहर जालना की. ब्रिटिश और उससे पहले मुगल काल में पारसी समुदाय के लोग कारोबार की दृष्टि से देश के कोने-कोने में बस गए थे. हालांकि उस वक्त भी उनका मुख्य केंद्र सूरत और मुंबई ही था. लेकिन, कॉटन मिल के कारोबार से जुड़े पारसी लोगों का एक कुनबा जालना में भी बस गया. फिर ये समुदाय अपने कारोबार में बढ़ोतरी के साथ-साथ शहर के विकास में योगदान देने लगा. यहां पारसी समुदाय के एक बड़े कारोबारी हुए पेस्तोनजी मेहरवानजी. उन्होंने 1863 में यहां कॉटन मिल और ऑयल प्रेसिंग की फैक्ट्री लगाई. फिर यह शहर कॉटन मिल का केंद्र बन गया. 19वीं सद के शुरुआत तक इस शहर में करीब 14 मिलें स्थापित हो चुकी थीं.

फिर क्या था जालना धीरे-धीरे मराठवाड़ा का प्रमुख आर्थिक केंद्र बन गया. मौजूदा वक्त में यह जिला है लेकिन 1980 से पहले यह औरंगाबाद जिले का हिस्सा था. आजादी से पहले यह हिस्सा हैदराबाद के निजाम के क्षेत्र में आता था. जालना मुगलों और माराठाओं के शासनकाल में एक प्रमुख केंद्र बना रहा.

जालना और पारसी
जालना में आज संभवतः कोई पारसी परिवार नहीं रहता है. लेकिन, इस शहर के विकास में उनके योगदान को कोई नाकार नहीं सकता. उन्होंने शहर में सेसपुल का निर्माण करवाया. स्थानीय पत्रकार सुरेश केसपुरकर बताते हैं कि जालना मराठवाड़ा की वित्तीय राजधानी है. छत्रपति शिवाजी महाराज के समय में भी जालना एक बड़ा व्यापारिक केंद्र रहा. फिर आजादी से पहले के दौर में यह क्षेत्र निजाम राज्य में था.

आज भी जालना शहर में पारसी समुदाय की निशानियां मौजूद हैं. शहर में गुरुबच्चन चौक के किनारे पारसी समुदाय का एक बड़ा महल है जो आज भी अच्छी स्थिति में है. सुरेश केसपुरकर बताते हैं कि हैदराबाद का निजाम मांडलिक राजाओं की श्रेणी में आता था. उसके पास सैन्य टुकड़ियां थीं. उसकी एक टुकड़ी जालना में भी रहती थी. केसपुरकर का कहना है कि इन सैनिकों को विभिन्न प्रकार के उपकरण उपलब्ध कराने के लिए बड़ी संख्या में पारसी समुदाय के लोग यहां रहते थे.

पारसी समुदाय की एक हवेली की तस्वीर.
शहर का विकास और पारसी समुदाय
पारसी व्यापारी सेना के लिए यूरोप से आधुनिक उपकरण लाते थे. वे हथियारों के साथ कपड़े और शराब का कारोबार करते थे. कारोबारी सफलता के कारण पारसी लोग काफी समृद्ध थे. उस दौर में न्यू जालना क्षेत्र की लगभग आधी आबादी पारसी समुदाय की थी. आज भी आपको जालना में कई जगहों पर पारसी लोगों की इमारतें दिख जाएंगी. आजादी के बाद भी जालना में पारसी लोगों को खास सम्मान था. यहां के पहले विधायक भी पारसी समुदाय से थे. उसका नाम बेजानजी थी. शहर का सबसे पुराना जेईएस कॉलेज पारसी समुदाय की देन है. कॉलेज की स्थापना मराठवाड़ा विश्वविद्यालय से दो साल पहले हुई थी. इसके पहले अध्यक्ष रुस्तमजी पेस्टनजी जालनावाला थे.

शहर को पानी की आपूर्ति करने वाली घनेवाड़ी झील का निर्माण 1934 में पारसी समुदाय के कुछ परोपकारी लोगों ने करवाया. पारसी समुदाय के लोग यहां बिजली लेकर आये. उन्होंने इस स्थान को टेलीफोन नेटवर्क से भी जोड़ा. जालना शहर में दो कुएं हैं, जिन्हें टॉवर ऑफ साइलेंस के नाम से भी जाना जाता है. एक खरपुडी इलाके में है और दूसरा पारसी हिल पर है. दुर्भाग्य से, आज जालना में पारसी समुदाय का कोई नागरिक नहीं रहता है. सुरेश केसपुरकर का यह भी कहना है कि सारी संपत्ति बेचने के बाद वे मुंबई, पुणे जैसी जगहों पर चले गए, लेकिन जालना शहर की समृद्धि में पारसी समुदाय का बहुत बड़ा योगदान है और हम सभी को इसे कभी नहीं भूलना चाहिए.

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