जानिए ऐसे ही कैसे एक व्यक्ति कर्मों के द्वारा हर समस्या से पा सकता है छुटकारा..
भारतीय मनीषा में देवता शब्द अनेक असाधारण क्षमताओं की प्रतीति करने वाला है। देवता शब्द के अर्थ व्यापक हैं, किंतु व्यवहार में उसका उपयोग इस तरह हुआ है कि उसे समझ पाने की स्थिति में कम लोग पहुंच पाते हैं। ऋग्वेद में संपूर्ण विश्व का एक ही देवता कहा गया है, किंतु उसके आधीन काम करने वाले अनंत देवता हैं, जो एक ही सत्ता के पोषक हैं।
उपनिषदों में कहा गया है कि एक ही शक्ति कार्य-कारण भाव से अनेक रूपों में बंटी हुई है, इसलिए हम कण-कण में उस छवि की कल्पना करते हैं। यह हमारी भावना है। विश्व का हर पदार्थ मनुष्य की भावना और उसकी अभिरुचि के अनुकूल ही प्रकट हुआ है। उपनिषदों का मानना है कि हमारे अंदर की शक्तियां और भावना ही देवता हैं। मनुष्य यदि अपने अंदर की शक्तियों से परिचित होकर उन्हें कर्म में प्रस्तुत करता है तो देवता कहलाता है।
देवताओं को भी कर्म के आधीन बताया गया है। हमारे शास्त्रों में कर्म की विषद् व्याख्या हुई है। वहां कर्म का स्थान देवताओं से भी ऊंचा बताया गया है। ‘कर्म प्रधान विश्व रुचि राखा’ कहा गया है। कर्म से ही धर्म की उत्पत्ति हुई है। चरक संहिता की मान्यता है कि ‘जो मनुष्य अपने कर्मों से दूषित नहीं है और जिसके मन में किसी प्रकार की दुर्भावना नहीं है, देवता, गंधर्व, पिशाच और राक्षस उसका कुछ बिगाड़ नहीं सकते। अधर्म को धर्म से ही जीता जा सकता है। देवताओं की कृपा से नहीं।’
मनुष्य को इसलिए श्रेष्ठ कहा गया है कि उसमें चेतना है। अपने अंदर सोई चेतना को जगाकर दूसरों को उसका लाभ पहुंचाने में ही जीवन की सार्थकता है। यही मानव का श्रेष्ठ कर्म है और यही परम-धर्म भी बन जाता है। देवताओं की अर्चना, उपसाना, पूजा-पाठ आदि के मूल में एक ही भावना होती थी, वह ‘सोअहं’ की भावना थी। अभिप्राय यह कि जो तुम हो हम भी वही बनें, वही शक्ति-सामर्थ्य हमें भी प्राप्त हो, तुम्हारी तरह अमर-पद को हम भी प्राप्त करें।
अमर हो जाना ही दैवत्व की पहचान है। चिरकाल के बाद लौटने पर जब लोगों ने भगवान के बारे में बुद्ध से पूछा तो बुद्ध मौन रह गए, लेकिन अपने तप, त्याग और भाव के कारण भगवान कहलाने लगे। सूरदास, तुलसीदास, मीरा आदि को यह भावना अमर कर जाती है और अमर हो जाना ही दैवत्व को प्राप्त हो जाना कहा गया है।