कश्मीरी पंडितों के कैंप तो जम्मू में लेकिन वोट डालेंगे कश्मीर के लिए, मतगणना का गणित भी है अलग

पिछले दिनों जब जम्मू की चुनावी बयार देखने के लिए निकला तो कश्मीरी पंडितों के बारे में जानने की इच्छा हुई। जम्मू से थोड़ा बाहर जगती नाम की जगह पर कश्मीर से आए विस्थापितों की कॉलोनी है।

कॉलोनी में छोटे-छोटे फ्लैट बने हुए हैं और गेट के अंदर प्रवेश करते ही एक परचून की दुकान पर कुछ लोग खड़े मिले। चुनावी राजनीति और उनके हालात पर बात करने की कोशिश की तो पहले मना कर दिया। जगती के इस क्षेत्र में लगभग चार हजार कश्मीरी पंडितों के परिवार रहते हैं। इसके बाद जब कश्मीर आया तो पता चला कि यहां भी अभी कुछ परिवार रहते हैं।

ऐसे परिवार जो उस समय छोड़कर नहीं गए और रह गए। जब उनसे पूछा कि वह क्यों नहीं गए तो उनकी आंखों में उल्टे दर्द भरे सवाल के अलावा कुछ नहीं दिखा। विस्थापित कश्मीरी पंडितों के कैंपों में वोट देने की व्यवस्था की जाती है और बाद में कश्मीर के उनके मूल निवास वाले लोकसभा क्षेत्र में जाते हैं और वहीं पर गिनती होती है। दिल्ली और जम्मू सहित देश में ऐसे लगभग एक लाख 32 हजार वोट हैं।

जम्मू में जगती सहित अन्य केंद्रों पर ऐसे वोट लगभग 20 केंद्रों पर डाले जाते हैं। इनमें से सबसे ज्यादा वोट श्रीनगर लोकसभा में लगभग 50 हजार हैं। बाकी वोट बारामूला और अनंतनाग लोकसभा क्षेत्र में हैं। इन तीनों लोकसभा क्षेत्रों में इस बार के लिए वोटिंग होगी। जम्मू के जगती जैसे कैंपों में रहने वाले ऐसे परिवार न तो प्रधान चुन पाते हैं और न ही और किसी प्रकार का स्थानीय नुमाइंदा। यहां रहने वालों का एक सवाल यह भी है कि उनका वोट लेने वाले क्यां यहां कश्मीर से इतनी दूर आकर उनका कुछ विकास करेंगे।

हमें वापस लौटाया जाए
जगती के कैंप में रह रहे बिट्टू जी भट्ट का कहना है कि वह अभी जम्मू के जगती कैंप में रह रहे हैं लेकिन पिछले लगभग 35 सालों में उनके कैंप कई जगह पर बदल चुके हैं। वह चाहते हैं कि सरकार उनके वोट तो वहां पर डलवा रही है लेकिन उन्हें अपने घरों में बसाने की प्रक्रिया भी शुरू की जाए। अब वह अपने घर लौटना चाहते हैं। जगदेव कुमार का कहना है कि कश्मीर में हमारी जमींदारी थी लेकिन अब यहां पर महज एक कमरे के फ्लैट में बूढ़े मां-बाप और बच्चों के साथ रहना पड़ता है।

सभी एक जैसे नहीं हैं, हमारे दोस्त भी हैं
बिट्टू भट्ट का कहना है कि कश्मीर में उनके घरों के आसपास उनके दोस्त भी थे। सभी अलगाववादी नहीं थे। आज भी वहां पर उनके दोस्त हैं और उनके साथ मिलना-जुलना लगा रहता है। हां उन्हें गिला भी है कि काश वहां के लोग साथ खड़े हो जाते तो चंद अलगाववादी तत्व उन्हें भगा नहीं पाते। दुकानदार ब्रजमोहन बताते हैं कि एक रात में उनका सब कुछ बदल गया था। पूरे सामान छोड़कर यहां पर आ गए थे। ब्रजमोहन भी चाहते हैं कि वह वापस अपने घर आएं। उनकी यादें उनके जेहन में हैं, चाहते हैं कि अपने गांव में फिर से सांस ली जाए। इन कैंपों की जगह अपनी जमीन नसीब हो। स्थानीय लोगों से नाराजगी की जगह तब की सरकारों से ज्यादा गुस्सा है।

युवाओं को वापस लाने के लिए पीएम पैकेज के कैंप
प्रधानमंत्री पैकेज के तहत लगभग छह हजार युवाओं को नौकरी मिली थी। कांग्रेस का दावा है कि यह उनकी सरकार के दौर में शुरू हुआ था तो वहीं भाजपा का कहना है कि इसे अंजाम तक उन्होंने पहुंचाया। राष्ट्रीय लोक जनशक्ति पार्टी के प्रवक्ता संजय सराफ का कहना है कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद यह योजना बनी थी। अब श्रीनगर में बडगाम में शेखपुरा, वेस्सू अनंतनाग, मटन अनंतनाग, शोपियां हॉल, कुपवाड़ा और बारामूला में ऐसे कैंप हैं। यह युवा नौकरी तो पा गए हैं लेकिन अभी उनसे किए गए काफी वादे अधूरे हैं।

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