जम्मू रचेगा इतिहास या कश्मीर का करिश्मा रहेगा बरकरार

अनुच्छेद 370 खत्म होने के बाद हुए पहले विधानसभा चुनाव में किसका मंगल होगा…भाजपा का, जो जम्मू-कश्मीर में सत्ता के लिए दशकों से इंतजार कर रही है? या नेशनल कॉन्फ्रेंस-कांग्रेस गठबंधन का, जो एक दशक से सत्ता से बाहर है। गठबंधन सरकारों से राज्य को मुक्ति मिलेगी या नंबर गेम में महबूबा मुफ्ती की पीडीपी, इंजीनियर रशीद की अवामी इत्तेहाद पार्टी और जमात व निर्दलीयों की भूमिका बढ़ जाएगी? जोड़-तोड़, मोलतोल और तिकड़मबाजी से छुटकारा मिलेगा, या राज्य इसी जकड़न में कस जाएगा? मंगलवार को ईवीएम खुलते ही इन सवालों के जवाब मिल जाएंगे।
एग्जिट पोल की भविष्यवाणियों के बीच मतदाताओं के रिकॉर्ड मतदान, 41 सीटों पर पुरुषों के मुकाबले महिलाओं के अधिक मतदान ने नतीजों में क्या भूमिका निभाई, यह भी सामने आ जाएगा। सबसे बड़ी बात…जम्मू व कश्मीर अलग-अलग मुद्दों, भावनाओं और अलग-अलग पसंद पर वोट करता आया है। इस द्वंद्व में सीएम की कुर्सी अब तक सिर्फ कश्मीर के हिस्से आई है। कोई भी पार्टी दोनों संभाग का विश्वास हासिल नहीं कर पाई। देखना दिलचस्प होगा कि जम्मू अस्मिता का दांव काम आया, या कश्मीर का परचम ही लहराएगा।
जमात-रशीद, अपनी पार्टी का अहम होगा रोल
मुख्य दलों के अलावा सभी की निगाहें सांसद इंजीनियर रशीद की अवामी इत्तेहाद पार्टी, जमात व अपनी पार्टी पर है। इनसे जुड़े कई प्रत्याशी अलगावादी पृष्ठभूमि से हैं। एनसी इनके पीछे भाजपा का हाथ बताती रही। इनमें कई चेहरे एनसी व पीडीपी को कड़ी टक्कर देते नजर आए। नतीजे बताएंगे िक घाटी की जनता ने इन्हें मुख्यधारा में स्वीकारा या पुराने दलों को ही अपनाया। देखना दिलचस्प होगा कि अलग पहचान व विचार वाले ये दल किसके साथ खड़े नजर आते हैं?
भाजपा भाग्योदय होगा या घाटी का घाटा बना रहेगा बाधा
भाजपा संस्थापक डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी से लेकर पूर्व पीएम स्वर्गीय अटल बिहारी वाजपेयी, लाल कृष्ण आडवाणी, डॉ. मुरली मनोहर जोशी व मौजूदा पीएम नरेंद्र मोदी तक एक निशान-एक विधान और एक संविधान के लिए दशकों से लड़ते रहे हैं। यह चुनाव इन संकल्पों को साकार करने के बाद हुआ है। 1987 में दो सीटों से सफर शुरू करने वाली भाजपा 2014 में 25 सीटों के साथ अब तक का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन कर चुकी है। केंद्र में नेशनल कॉन्फ्रेंस को साथ लेकर काम कर चुकी पार्टी पिछले चुनाव के बाद पीडीपी से गठबंधन कर राज्य की सत्ता का स्वाद चख चुकी है। हालांकि यह रिश्ता लंबा नहीं निभा। इस बार भाजपा अपने बलबूते सत्ता हासिल करने के लक्ष्य के साथ मैदान में उतरी। सोशल इंजीनियरिंग का बड़ा दांव चला। गुज्जर-बकरवाल, वाल्मीकि समाज को भागीदारी का मौका दिया, तो कश्मीरी पंडित व पाकिस्तानी शरणार्थियों की विधानसभा में हिस्सेदारी के लिए अलग से स्थान तय किया। साथ ही अपने दबदबे वाले जम्मू संभाग में लोगों की भावना को देखकर ही पहली बार जम्मू की सरकार का नारा उछाला। देखना होगा कि पार्टी घाटी के घाटे की कहां व कितना भरपाई कर पाई।
संगठन से जुड़े नेताओं के बीच मनभेद के फीडबैक पर बीच चुनाव ही डैमेज कंट्रोल की कोशिश की। प्रदेश अध्यक्ष के साथ कार्यकारी प्रदेश अध्यक्ष बनाया, तो जिन पुराने नेताओं के टिकट काटे, उनका समायोजन कर सबको साधे रखने का प्रयास किया।
खेमों में बंटी पार्टी को एकजुट रखने की उम्मीद में राज्य के लोगों के बीच से सीएम चेहरा आगे करने की जगह पीएम मोदी के ही चेहरे को सामने कर दिया।
नेशनल कॉन्फ्रेंस : अब्दुल्ला परिवार से 7वीं बार मुख्यमंत्री या नया समीकरण
प्रदेश में अब तक 10 विधानसभा चुनावों में 13 मुख्यमंत्री हुए हैं। इनमें छह बार मुख्यमंत्री अब्दुल्ला परिवार से रहे। इनमें दो बार शेख अब्दुल्ला, तीन बार फारुक अब्दुल्ला और 2009 में एक बार उमर अब्दुल्ला सीएम बने। एनसी राज्य की, खासकर घाटी की सबसे ताकतवर पार्टी मानी जाती रही है। हालांकि बीते कुछ सालों में इसके आधार में कमी आई है। जम्मू संभाग में कमजोर आधार की वजह से एनसी शुरू से ही कांग्रेस पर निर्भर रही है। इस चुनाव में भी वह कांग्रेस से गठबंधन कर मैदान में उतरी। इसके बावजूद दोनों में समन्वय की कमी नजर आई। पांच सीटों पर दोनों पार्टियां घोषित रूप से दोस्ताना मुकाबले में उतरीं।
एनसी व कांग्रेस का 1987 का गठबंधन चर्चा में रहा। मतदाता उलाहना देते नजर आए कि इस गठबंधन ने तब अनैतिक हथकंडे न अपनाए होते, तो आतंकवाद और अलगाववाद न पनपा होता।
कांग्रेस : गठबंधन कितना आया काम
कांग्रेस से दो बार गुलाम मो. सादिक और एक बार गुलाम नबी आजाद सीएम रह चुके हैं। इसके बाद कांग्रेस कभी अकेले सत्ता हासिल नहीं कर सकी। दोबारा मुख्यमंत्री भी गठबंधन की वजह से बना सकी थी। कभी एनसी व कभी पीडीपी के साथ मिलकर कांग्रेस राज्य में अपनी प्रासंगिकता बनाए रखने में जुटी रही। 2002 में पीडीपी संग गठबंधन कर 26.17% व 2008 में एनसी के साथ मिलकर 19.93%वोट शेयर बनाया। कांग्रेस 2014 में अकेले लड़ी और 18.36% वोट ही हासिल कर पाई। नतीजे बताएंगे कि पुराने मित्र के साथ यह नया रिश्ता कितना काम आया?
पीडीपी : किंगमेकर बनेगी या किनारे रहेगी
पीडीपी ने यह चुनाव किंग बनने की जगह किंगमेकर बनने के लक्ष्य के साथ लड़ा। महबूबा मुफ्ती ने आश्चर्यजनक ढंग से चुनाव नहीं लड़ा, जिससे पार्टी सीएम रेस से ही बाहर हो गई। पार्टी घाटी में एनसी की मुख्य प्रतिद्वंद्वी के रूप में अपने को पेश करने में ही लगी रही। चुनाव की मुख्य प्रचारक तो मुफ्ती थीं, लेकिन मुख्य चेहरे के रूप में मुफ्ती की बेटी इल्तिजा देखी गई। नतीजों से पता चलेगा कि तीन बार सत्ता सिंहासन तक पहुंची पार्टी कहां खड़ी रह पाई है? क्या वह घाटी में एनसी की प्रतिस्पर्धी अभी भी बनी रह पाई है या उसकी जगह उभरी नई पार्टियों ने ले ली है? यह भी पता चलेगा कि चुनाव से ठीक पहले वाले सीएम ने सीएम की कुर्सी को छोड़ने की जो रणनीति अपनाई, क्या वह सफल रही? क्या वह किंग की जगह किंगमेकर बनने में सफल हो पाईं? ऐसा हुआ तो इल्तिजा इस परिवार की नई सितारा होकर सामने आ सकती है।