जम्मू-कश्मीर : यह बदले समय की सरकार है, पहले दिन से ही नजर आने लगे सियासी दांवपेच!

मैं एक पूर्ण राज्य का मुख्यमंत्री रहा हूं। मैं खुद को ऐसी स्थिति में नहीं देख सकता, जहां मुझे उपराज्यपाल से चपरासी चुनने के लिए कहना पड़े या बाहर बैठकर फाइल पर उनके हस्ताक्षर करने का इंतजार करना पड़े।’ केंद्रशासित प्रदेश जम्मू-कश्मीर के पहले मुख्यमंत्री बने उमर अब्दुल्ला ने विधानसभा चुनाव लड़ने के सवाल पर यह बात बीती जुलाई में तब कही थी, जब लोकसभा चुनाव हारे उन्हें चंद ही दिन हुए थे।

विस चुनाव की घोषणा नहीं हुई थी। उनका बयान खूब चर्चा में रहा। हालांकि, वह विस की दो सीटों से चुनाव लड़े। दोनों जीते। बुधवार को सरकार की बागडोर भी संभाल ली। वह खुद दूसरी बार और अपने खानदान से सातवीं बार शपथ लेने वाले सीएम बने। उनकी सरकार के सियासी भविष्य पर ध्यान दें, तो जहां उनका यह बयान याद आता है, वहीं चुनाव-पूर्व गठबंधन की सहयोगी कांग्रेस व विपक्षी गठबंधन में शामिल आम आदमी पार्टी के दबाव को दरकिनार कर उन्होंने जो मंत्रिमंडल बनाया है, वह चौंकाने वाला है। माना जा रहा है कि सियासी संतुलन की पटकथा पार्टी प्रमुख फारूक अब्दुल्ला की सूझ-बूझ से लिखी गई है। 

जानकार बताते हैं कि उमर यह बात किसी से भी बेहतर समझते हैं कि उनकी सरकार 2009 से 2014 वाली नहीं है। 10 साल में न सिर्फ राज्य का भूगोल बदल गया, बल्कि इतिहास में भी कई नए पन्ने जुड़ चुके हैं। उस सरकार के पास तमाम अधिकार थे। लद्दाख उसका हिस्सा था। आज जम्मू-कश्मीर ही नहीं, लद्दाख भी अलग केंद्रशासित प्रदेश है। इसी से सरकार की सीमाएं भी तय होती हैं। उपराज्यपाल के पास कई मायने में सीएम से ज्यादा कार्यकारी शक्तियां हैं। सीएम के रूप में उमर न तो अपनी पसंद के अफसरों को तैनाती दे सकते हैं, न ही न सुनने वाले अफसरों के तबादले कर पाएंगे। महत्वपूर्ण गृह महकमे पर भी उनका कोई दखल नहीं रहेगा। उमर को उपराज्यपाल के हस्ताक्षर का इंतजार करना पड़ेगा, कई मामलों में तो उन पर निर्भर रहना पड़ सकता है। उन्होंने राज्य का दर्जा बहाल करने से लेकर मुफ्त बिजली और महिलाओं को नकद भुगतान सहित अनेक ऐसे लोक-लुभावन वादे किए हैं, जिन्हें बिना केंद्र की सहायता के पूरे कर पाना मुश्किल है।

उमर के पिछले कार्यकाल में नेकां की सहयोगी कांग्रेस केंद्र की सत्ता में थी। आज केंद्र में जम्मू-कश्मीर पर स्पष्ट नजरिया रखने वाली उनकी धुरविरोधी भाजपा है, जिसके एजेंडे को चुनौती देकर उमर जनादेश लेकर आए हैं। भाजपा ने अनुच्छेद-370 व 35ए समाप्त करने की बुनियाद पर चुनाव लड़ा। उमर इसकी बहाली के वादे पर जीते। ऐसे में सरकार की राह उतनी आसान नहीं होने जा रही, जितनी पिछली बार थी। उनके पास दो रास्ते हैं। पहला, जैसा कांग्रेस या विपक्षी गठबंधन के नेता चाहें, उसकी भाषा में उपराज्यपाल व केंद्र को निशाना बनाएं। दिल्ली की आप सरकार की तरह सुर्खियां बटोरें। दूसरा, विपरीत विचारधारा होने के बावजूद केंद्र व एलजी से समन्वय बना आगे बढ़ें। उमर से थोड़ा हटकर फैसलों की उम्मीद की जा रही है। उमर भी सियासत व सरकार में संतुलन साधते दूसरे रास्ते पर आगे बढ़ने का संकेत देते नजर आ रहे हैं।

सरकार से संतुलन और भाजपा से स्पष्ट दूरी की नीति पर नतीजा आने पर उमर से सवाल हुआ था कि सरकार व केंद्र के बीच समन्वय कितना जरूरी है? उन्होंने कहा था-नई दिल्ली से टकराव मोल लेकर कुछ भी हासिल नहीं किया जा सकता। पहले सरकार बनने दीजिए। सौहार्दपूर्ण संबंध होने चाहिए। हम केंद्र से लड़कर किसी भी मुद्दे का समाधान नहीं कर सकते। ऐसा नहीं है कि हम भाजपा की राजनीति स्वीकार करेंगे। हम भाजपा का विरोध करते रहेंगे, लेकिन केंद्र का विरोध करना हमारी मजबूरी नहीं है। केंद्र के साथ अच्छे रिश्ते रखना जम्मू-कश्मीर और उसके लोगों के लिए फायदेमंद होगा। लोगों ने टकराव के लिए वोट नहीं किया है। 

उमर ने सरकार में न तो कांग्रेस को शामिल किया, न ही आम आदमी पार्टी को। कहा जा रहा है कि कांग्रेस मंत्रिमंडल में दो मंत्री व विस उपाध्यक्ष का पद चाहती थी। कांग्रेस यह भी नहीं चाहती थी कि उसके बागी सतीश शर्मा को मंत्री बनाया जाए। वहीं, आप अपने इकलौते विधायक को मंत्री बनाना चाहती थी। उमर ने दोनों पार्टियों से दूरी बनाई। उन्होंने ऐसा तब किया जब कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे, लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी व राष्ट्रीय महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा शपथ समारोह में हिस्सा ले रहे थे। उमर केंद्र के समर्थन की आवश्यकता को अच्छे से समझ रहे हैं। पूर्व में वह अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली सरकार में शामिल रहे हैं। सहयोगी दलों से जुड़े सियासी फैसले उसके बाद ही लेंगे। उन्होंने मंत्रिमंडल में तीन स्थान छोड़ दिए हैं।

भाजपा से सियासी दूरी…जम्मू से उपेक्षा का जोखिम नहीं उठाएंगे
नेशनल कॉन्फ्रेंस (नेकां) पर जम्मू के हितों की अनदेखी का आरोप लगता रहा है। एनसी का जम्मू संभाग में घटता जनाधार इसकी बानगी है। नेशनल कांफ्रेंस ने 90 सदस्यीय विधानसभा में 42 सीटें जीती हैं। लेकिन, इसमें सिर्फ सात सीटें ही जम्मू संभाग की हैं। जम्मू में भाजपा का दबदबा है। भाजपा ने संभाग की 43 सीटों में से 29 सीटें जीती हैं। उमर सरकार जम्मू की उपेक्षा की तोहमत छुड़ाने के लिए पहले दिन से ही काम करती नजर आ रही है। भाजपा प्रदेश अध्यक्ष रविंद्र रैना को हराने वाले सुरेंद्र चौधरी को डिप्टी सीएम बना दिया है। 

साथ ही, जम्मू संभाग को छह सदस्यीय मंत्रिमंडल में तीन सदस्यों के साथ आधी हिस्सेदारी दी है। मंत्रिमंडल में दो हिंदू सदस्यों को शामिल किया है। मायने साफ हंै कि नेशनल कॉन्फ्रेंस भाजपा को सियासी तौर पर कोई मौका नहीं देना चाहती है। डिप्टी सीएम सहित दो हिंदू मंत्री बनाकर उमर ने संकेत दिया है कि सरकार का फोकस जम्मू पर बना रहने वाला है। 

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