कैसे भारत आई थी तंचोई सिल्क की कलाकारी? जानिए
साड़ी इंडियन ट्रेडिशन का एक अहम हिस्सा है। भारत के अलग-अलग राज्यों में आपको इसके कई डिजाइन और फैब्रिक मिल जाएंगे, लेकिन अगर बात सिल्क की साड़ी की हो, तो हर किसी की जुबान पर बनारसी साड़ी का नाम जरूर आता है।
बता दें, वाराणसी में मिलने वाली इन बनारसी साड़ियों की डिमांड देश ही नहीं, विदेशों में भी खूब ज्यादा है। ऐसे में आज इस आर्टिकल में हम आपको तंचोई साड़ी के बारे में बताएंगे, यह साड़ियों पर की जाने वाली एक खास किस्म की बुनावट होती है, जिसे दुनियाभर में खूब पसंद किया जाता है। आइए जानें इसके बारे में।
चीन से हैं इस बुनावट की जड़ें
कई दशकों से तंचोई साड़ियों की पहचान बनारस से जुड़ी हुई है, लेकिन इसके तार के शुरुआती सिरे की बात करें, तो उसका कनेक्शन चीन से है। साल 1856 में सर जमसेतजी जेजिभोय नाम के एक पारसी व्यापारी ने सूरत के जोशी परिवार के तीन बुनकर भाइयों को ब्रोकेड सिल्क बनाने की कला सीखने के लिए चीन भेजा था।
वहीं, जब तीनों भाई वापस लौटे, तो उन्होंने चीन में अपने गुरु का नाम अपना लिया था। जिसने उन्हें चीन में यह कला सिखाई थी, उसका नाम था चोई। चूंकि गुजराती में तीन को त्रान कहा जाता है, ऐसे में सिल्क की बुनावट सीखकर आने वाले तीनों भाइयों की इस कला को तंचोई के नाम से जाना जाने लगा। बता दें, कि 18 वीं शताब्दी से ही भारत के पश्चिमी समुद्र तट से चीन से बड़ी मात्रा में इसका व्यापार शुरू हो गया था।
बनारस के बुनकरों की बड़ी भूमिका
अंग्रेजों का प्रभाव जैसे-जैसे बढ़ता गया, सिल्क की साड़ियां अपनी चमक खोती चली गईं। 20वीं शताब्दी तक यूरोप के कारखानों से पावर लूम से बनी साड़ियां भारत आने लगीं, जो कि हाथ से बनी साड़ियों के मुकाबले सस्ती थीं। इसी के साथ पारसी समुदाय में भी बदलाव आने लगा, ऐसे में तंचोई सिल्क साड़ियों का उत्पादन लगभग बंद हो गया। ऐसे में बनारस के बुनकरों ने इस कला को दोबारा से शुरू किया और आज यह अपने आप में बेहद खास बनी हुई हैं।