जानना चाहते है कैसी होती है एक IAS की जिंदगी को जानना हो तो ‘शादी में जरूर आना’
वे दिन बीत गए जब परिवार की बागडोर संभालने वाला सख्त मुखिया गर्व से कहता थाः हमारे खानदान की बहू-बेटियां नौकरी नहीं करती। लोग क्या कहेंगे कि हम उनकी कमाई खा रहे हैं। अब वक्त है, बेटी पढ़ेगी तो बेटी बढ़ेगी। नई सोच दुनिया को बदल रही है। बेटियों की पढ़ाई, करियर/आत्मनिर्भरता लगातार रेखांकित हो रहे हैं। शादी में जरूर आना इसी बात को सिनेमाई रोमांटिक-कॉमिक अंदाज में पेश करती है। सोच के दो विपरीत ध्रुव टकराते हैं। लड़की ने पढ़ तो लिया लेकिन अंततः उसके हाथ पीले होने हैं।
एम.ए. पास आरती (कृति खरबंदा) के साथ यही हो रहा होता है कि शादी के दिन पता चलता है, वह पीसीएस परीक्षा के फाइनल में पास हो गई। अब चुनना है चौका-चूल्हा या अफसरी। दूल्हा उसके नौकरी करने को पॉजिटिव ढंग से देखता है परंतु सास का अंदाज ‘खानदानी’ है। अतः आरती आजादी चुनती है।
दरवाजे पर बारात है और वह भाग निकलती है। यह कहानी का टर्निंग प्वॉइंट है क्योंकि आरती के प्यार में पड़ चुका क्लर्क सत्येंद्र (राजकुमार राव) फिर डट कर पढ़ता है और अगले चार-पांच साल में आईएएस बन जाता है। वक्त का पहिया ऐसे घूमता है कि आरती पर भ्रष्टाचार-घूसखोरी के आरोप लगते हैं। जांच का जिम्मा सत्येंद्र को मिलता है। अब क्या होगा…? क्या वह आरती से बदला नहीं लेगा? ठुकराए पुरुष के अहंकार की पैनी नोंक बार-बार आरती के दिल में धंसती है और फिर ज्यादातर दृश्यों में आप उसकी आंखों में आंसू पाते हैं।
शादी में जरूर आना में तमाम तड़के लगे हैं। रोमांस-नाच- गाना-कॉमेडी और जबर्दस्त ड्रामा। बदलते वक्त के साथ कदम मिलाने में संघर्ष कर रही भारतीय सभ्यता और सोच को लेखक कमल पांडे और निर्देशक रत्ना सिन्हा ने खूबसूरती से उकेरा है।
सवाल यही कि क्या लड़की को इसलिए पढ़ा रहे हैं कि वह चारदीवारी में कैद रहे? फिर वह इतनी टैलेंटेड भी है कि घर का लड़का चार बार में अफसरी की परीक्षा क्लीयर नहीं कर पा रहा और लड़की पहली बार में पास हो रही है! तब क्यों झूठी शान और पुरातन पंथी सोच की आड़ में उसके साथ अन्याय हो? बहन होगी तेरी, बरेली की बर्फी और शादी में जरूर आना के साथ राजकुमार राव ने साल भर में यूपी केंद्रित फिल्मों की हैट्रिक जमाई है। वह पहले सीधे-सहज युवा और बाद में आईएएस अफसर की भूमिका में जमे हैं।