दिल्ली की सियासत में प्रवासी मतदाताओं का दबदबा

पंजाबी व सिख, पूर्वांचल, उत्तराखंड समेत दूसरे राज्यों से ताल्लुक रखने वाले लोगों को अपने पक्ष में करने की जुगत में सभी पार्टियां जोर लगाती हैं।

दिल्ली की सियासत में प्रवासी मतदाताओं का दबदबा रहता है। पंजाबी व सिख, पूर्वांचल, उत्तराखंड समेत दूसरे राज्यों से ताल्लुक रखने वाले लोगों को अपने पक्ष में करने की जुगत में सभी पार्टियां जोर लगाती हैं।

दिल्ली को मिनी भारत माना जाता है। पूरे देश से रोजगार की तलाश में दिल्ली पहुंचने वालों की प्राथमिकता सुरक्षाजनित रहती है। सामाजिक तौर पर शहर में पहला जुड़ाव अपने क्षेत्र के लोगों से होता है। एक शोध के मुताबिक, दिल्ली में करीब 90 फीसदी निर्माण मजदूर बुंदेलखंड, मध्य प्रदेश व छत्तीसगढ़ से हैं। रेहड़ी-पटरी व ट्रांसपोर्ट सेक्टर पर पूर्वांचल के लोग काबिज हैं। ढाबे पर काम करने वालों की अधिकता उत्तराखंड के लोगों की है।

खास बात यह कि ऐसे लोग एक ही इलाके में रहना भी पसंद करते हैं। चुनाव के वक्त राजनीतिक दल इसी पहचान को खाद-पानी देकर वोट में तब्दील कर देते हैं। उम्मीदवारों के चयन से लेकर चुनाव प्रचार करने वाले नेता भी प्रदेश विशेष का होता है। यही वजह है कि राजनीतिक दलों के यूपी, बिहार, हरियाणा व पंजाब के नेता दिल्ली के पूर्वांचली, दिल्ली देहात और पंजाबी बहुल इलाकों में प्रचार के दौरान दिख जाते हैं। वहीं, जहां व पूर्वोत्तर के लोग लोग रहते हैं, वहां उसी प्रदेश का नेता प्रचार में होता है।

अलग-अलग दलों से मिलने वाली सहूलियतों व चुनावी वादों के साथ मतदाता की स्थानीय पहचान चुनावों में भारी रहती है। इस वक्त यह प्रवृत्ति और भी ज्यादा है। इसकी वजह यह है कि अलग-अलग प्रवासी समूहों का वोट हासिल करने के लिए राजनीतिक दलों ने अपनी तरफ से कई सारी सहूलियतें दी हैं। वहीं, इनके बीच से नेता भी आ रहे हैं। पूर्वांचल, उत्तराखंड, पंजाबी समेत जिस भी स्थानीय समूह की भागीदारी ज्यादा है, वह राजनीतिक दलों से मोलभाव करने में उतना ही आगे रहता है।

प्रो. चंद्रचूड़ सिंह, राजनीतिक विश्लेषक और प्रो. राजनीति विभाग, डीयू

दिल्ली में बाहर से आने वाले लोग जिन वजहों से एक साथ आते हैं, उसमें सुरक्षा, भावनात्मक लगाव, भाषा व सांस्कृतिक पृष्ठभूमि अहम है। यह स्वाभाविक भी है। चुनावों के दौरान स्थानीय पहचान उभरकर सामने आती है। आज से 20-25 साल पहले कौन कल्पना कर सकता था कि दिल्ली में दस से ज्यादा पूर्वांचल से ताल्लुक रखने वाले विधायक होंगे। छठ का आयोजन जिस तरह हो रहा है, उसकी 90 के दशक तक कल्पना नहीं की जा सकती है। इसी तरह पंजाब के त्योहार भी बड़े पैमाने पर आयोजित होते हैं।

प्रो. संजय भट्ट, समाज विज्ञान व सेवानिवृत्त प्रोफेसर डीयू

पूर्वांचल-उत्तराखंडी वोटर अहम
तीनों राजनीतिक दलों के रणनीतिकार मानते हैं कि दिल्ली में करीब 20-25 फीसदी पूर्वांचल के मतदाता हैं। इसमें पूर्वी यूपी और बिहार के प्रवासी शामिल हैं। इससे दिल्ली की 28-29 सीटों पर असर पड़ता है। 2020 के विधानसभा चुनाव में आप ने पूर्वांचल बहुल इलाके की 24 सीटें जीती थीं, जबकि भाजपा के खाते में पांच सीटें आईं थीं। दूसरी तरफ उत्तराखंड से ताल्लुक रखने वाले मतदाताओं की संख्या पांच फीसदी के करीब है। दिल्ली की करीब दस सीटों पर पार्टी विशेषक के हक में गया इनका वोट असरदार होता है।

इन सीटों पर पूर्वांचली असरदार
किराड़ी, बुराड़ी, उत्तम नगर, संगम विहार, बादली, गोकलपुर, मटियाला, द्वारका, नांगलोई, करावल नगर, विकासपुरी, सीमापुरी, मॉडल टाउन, पटपड़गंज, लक्ष्मी नगर, बदरपुर, पालम, राजेंद्र नगर, देवली।

यहां उत्तराखंड के लोग डालते हैं असर
नई दिल्ली, आरके पुरम, दिल्ली कैंट, बुराड़ी, करावल नगर, पटपड़गंज, बदरपुर, लक्ष्मी नगर, पालम और द्वारका। पंजाबी/सिख मतदाता भी अहम

दिल्ली में करीब 12 फीसदी सिख व पंजाबी मतदाता हैं। करीब दस सीटों पर इस समुदाय का वोट असर डालता है। इसमें राजेंद्र नगर, राजौरी गार्डन, तिलक नगर, पटेल नगर, जनकपुरी, मोती नगर, शाहदरा, गांधी नगर, ग्रेटर कैलाश सरीखी सीटें हैं।

जाट-गुर्जर वोटर साबित हुए अपवाद
जाट और गुर्जर इस मामले में अपवाद हैं। इस तबके का वोटर अपने समुदाय के उम्मीदवार की तरफ जुड़ जाता है। दिल्ली से चौधरी दिलीप सिंह, सज्जन कुमार, साहिब सिंह वर्मा, रमेश कुमार, प्रवेश वर्मा, चौधरी भरत सिंह व चौधरी तारीफ सिंह के संसद पहुंचने में जातीय समीकरण की भी भूमिका रही है। दक्षिणी और पश्चिमी दिल्ली में जाट व गुर्जर प्रभावित विधानसभा सीटें हैं।

मिनी इंडिया का होता चुनाव
राजनीतिक विश्लेषक बताते हैं कि बेशक उत्तर भारत के राज्यों के वोटर दिल्ली में प्रभावी हैं, लेकिन दिल्ली का चुनाव मिनी इंडिया का चुनाव माना जाता है। दिल्ली के अलग-अलग इलाकों में जम्मू कश्मीर से लेकर तमिलनाडु व गुजरात से लेकर उत्तर-पूर्वी भारत के लोग रहते हैं।

यही वजह है कि भाजपा व कांग्रेस इस समूह के वोटरों को प्रभावित करने के लिए प्रदेश स्तर के नेता बुलाते हैं। वहीं, आप ने हरियाणा, पंजाब व गुजरात के नेताओं को इन इलाकों में प्रचार के लिए लगा रखा है।

क्षेत्रीय आधार ने दिलाई धमक
लाल बिहारी तिवारी, महाबल मिश्रा व मनोज तिवारी, विजय कुमार मल्होत्रा, मदन लाल खुराना, अजय माकन व ललित माकन की संसद की राह क्षेत्रीय पहचान से आसान हुई है।

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