ऐतिहासिक क्षण से दूर रहकर विपक्ष ने आखिर क्या पाया? डर तो यह है कि विपक्ष ने एक अहम पल खोया..

 रविवार को दोपहर बाद अगर कोई नए संसद भवन के पास से गुजरा हो तो लोगों को परिवार के साथ मुख्य गेट के पास खड़े होकर फोटो खिंचाते हुए देखा होगा। यह उनके लिए यादगार पल था। उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता कि पूरे मुद्दे के पीछे विवाद क्यों है? वह शायद इसे समझना भी नहीं चाहते हों, लेकिन यह सवाल अहम है कि ऐतिहासिक क्षण से दूर रहकर विपक्ष ने आखिर क्या पाया? डर तो यह है कि विपक्ष ने एक अहम पल खोया है।

इतिहास के पन्नों में उसका नाम हमेशा के लिए इस आयोजन का बहिष्कार करने वालों में शामिल हो गया। उसकी ओर से तर्क भले ही राष्ट्रपति से उद्घाटन कराने का रखा जा रहा हो, लेकिन जिस तरह पूरे मुद्दे पर दो-ढाई साल से राजनीति गरमाई है, उससे संदेश तो यही जाता है कि विरोध संसद भवन का है और यह मुख्य रूप से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के विरोध पर टिका है।

विपक्ष का मोदी विरोध अस्वाभाविक नहीं है, लेकिन भविष्य में पूछा जाएगा कि व्यक्ति विरोध में संसद भवन का बहिष्कार क्या समझदारी पूर्ण था। राजद की ओर से संसद भवन की तुलना ताबूत से करना तो विवेकहीनता की पराकाष्ठा है। उसे संवैधानिक नैतिकता से जोड़ना अभद्रता मानी जाएगी।

समाजवादी पार्टी ने ब्राह्मणवादी परंपराओं को बढ़ावा देने का आरोप लगाकर जता दिया कि उसके दिमाग में केवल चुनाव घूम रहा है और वह संसद के मुद्दे पर भी जातिवाद को नहीं छोड़ पा रही है। यह सवाल जरूर पूछा जाएगा कि क्या विपक्ष ने फैसला कर लिया है कि वह इस संसद भवन में कदम नहीं रखेगा? कम से कम तब तक जब तक नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री बने रहेंगे। दो-ढाई वर्ष पीछे चलते हैं।

कांग्रेस समेत कई विपक्षी दलों ने किया विरोध

कोरोना से कुछ पहले सेंट्रल विस्टा और नया संसद भवन बनाने का फैसला लिया गया था। कांग्रेस समेत कई विपक्षी दलों ने इसका विरोध किया था। मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा और कोर्ट ने सरकार के फैसले के पक्ष में राय व्यक्त की थी। संसद भवन की आधारशिला रखी जानी थी, तो कई विपक्षी दलों ने उसका भी बहिष्कार किया। लेकिन तब जदयू राजग का हिस्सा था। इसलिए विरोध नहीं किया। ऐसे में अब फिर प्रधानमंत्री के नाम पर बहिष्कार किया जाता है तो क्या इसे वास्तव में संसद का बहिष्कार नहीं समझा जाएगा।

कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने इस आयोजन को प्रधानमंत्री का राज्याभिषेक करार दिया, तो क्या यह माना जाएगा कि 1947 में जब जवाहरलाल नेहरू को सेंगोल दिया गया था, तो वह राज्याभिषेक था? लोगों के दिमाग में तो यह भी घूम रहा है कि आखिर सेंगोल को भुला क्यों दिया गया था? जनता जानती है कि राजनीति और राजनीतिज्ञों का रुख बदलता रहता है।

इसीलिए कई घटनाओं को रोचक प्रसंग की तरह याद करती है और मन बहलाती है। प्रतिक्रिया तब होती है, जब वह चुभने लगे। वरना जनता इसी बात पर भड़क जाती कि संसद एनेक्सी का उद्घाटन तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने क्यों किया था? या फिर नई विधानसभा भवनों का शिलान्यास नीतीश कुमार, के चंद्रशेखर राव, हेमंत सोरेन जैसे मुख्यमंत्रियों द्वारा क्यों किया गया था? उस वक्त तो विपक्षी दलों की ओर से ऐसी तीखी प्रतिक्रिया नहीं आई थी।

स्वामी प्रसाद ने रामायण पर भी खड़ा किया था सवाल 

अचरज तो समाजवादी पार्टी के नेता स्वामी प्रसाद मौर्य की टिप्पणी पर भी है, जो दक्षिण के धर्मगुरुओं को भी निशाना बनाने से नहीं चूक रहे। उन्होंने आरोप लगाया कि प्रधानमंत्री मोदी ने कट्टरपंथी ब्राह्मणवादी धर्मगुरुओं को बुलाया। उन्हें शायद यह नहीं पता कि आदिनम (पुजारी) पिछड़े और अनुसूचित जाति के धर्मगुरु होते हैं। याद रहे कि इन्हीं स्वामी प्रसाद ने रामायण पर भी सवाल खड़ा किया था।

चुनाव आ रहा है, तो नेताओं की परेशानी समझी जा सकती है, लेकिन इस तरह? नए संसद भवन की जरूरत थी, यह बात कइयों की ओर से बताया जा रहा है। कई देशों की तरह भारत ने जरूरत के अनुसार नया संसद भवन बनाया। यह गर्व की बात है। विपक्ष इस पल का साक्षी बनने से चूक गया। इतिहास में तो यही अंकित होगा कि विपक्ष ने नए संसद भवन का बहिष्कार किया था। याद तो यही रखा जाएगा कि नया संसद भवन मोदी काल में बना था और जिसका संबंध लुटियंस से नहीं है।

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