जन्म से लेकर विवाह तक, यहां जानिए श्री गुरु तेग बहादुर जी के जीवन से जुड़ी प्रमुख बातें

गुरु तेग बहादुर (Guru Tegh Bahadur Ji) ने मुगलों के क्रूर शासन के खिलाफ समाज को एकजुट किया और उन्हें भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का जनक माना जाता है। 1621 में जन्मे, उन्होंने बचपन से ही शस्त्र विद्या में निपुणता हासिल की और करतारपुर की लड़ाई में पैंदा खान को हराकर ‘तेग बहादुर’ नाम प्राप्त किया। आइए उनसे जुड़ी कुछ महत्वपूर्ण बातों को जानते हैं।

वर्तमान भारत में जिन दिनों दिल्ली विस्फोट , रेसिन जैसे जहर एकत्र कर लाखों हिन्दुओं को मारने के जिहादी षड्यंत्र दिख रहे हैं , कल्पना कीजिये जब चार सौ साल पहले मुगलों का क्रूर शासन था उस समय समाज का क्या हाल होगा. गुरु तेग़ बहादुर साहब ने पंजाब से लेकर ढाका और कामरूप ( असम ) तक समाज को जोड़ा , हिम्मत बंधाई , एकता स्थापित की और मुगलों के जुल्म के खिलाफ सैन्य शक्ति की रचना की। वास्तव में उनके साहसिक कार्यों और महान बलिदान ने मुग़लों की सत्ता को अंत की और लेजाने का प्रारम्भ किया इसलिए इतिहासकार गुरु तेग़ बहादुर को भारतीय स्वातंत्र्य युद्ध का जनक और राष्ट्र-निर्माता भी मानते हैं।

तिलक जंञू राखा प्रभ ताका॥ कीनो बडो कलू महि साका॥

साधन हेति इती जिनि करी॥ सीसु दीया परु सी न उचरी॥

धरम हेत साका जिनि कीआ॥ सीसु दीआ परु सिररु न दीआ॥

उनका जन्म 1 अप्रैल 1621 को अमृतसर में हुआ। उनके पिता ( छठे गुरु ) , गुरु हरगोबिंद साहिब और माता नानकी ने उनको त्याग मल नाम दिया – ऐसा बेटा जो वीतरागी और त्यागी हो. उन्होंने हिन्दू धर्म ग्रंथों का गहराई से अध्ययन किया , तथा उनकी भाषा में ब्रज भाषा का लालित्य मिलता है। त्याग मल को बचपन से ही शस्त्र में निपुणता की शिक्षा मिली और जब मुगलों ने गुरु नानक देव की निर्वाण स्थली करतारपुर पर हमला किया तो सिखों ने उनका डट कर मुकाबला किया। उस हमले में सबसे आगे पैंदा खान था , जो अनाथ मुस्लिम था और उसको गुरु हरगोबिंद जी ने अपनी शरण में लेकर पाला पोसा था। बाद में वह देगा देकर मुगलों से जा मिला और कहा कि वह गुरु हरगोबिंद को जानता है इसलिए उनको मारने में मुगलों का बड़ा सहायक हो सकता है।

उस विश्वासघाती को 14 वर्ष के बालक त्याग मल ने करतारपुर की लड़ाई में हराया । इस पर प्रसन्न होकर पिता हरगोबिन्द ने उनका नाम त्याग मल से बदल कर तेग बहादुर रख दिया अर्थात जो खड्ग का महावीर है।

तेग बहादुर बचपन से ही साधना , तप और आध्यात्मिक रूचि के थे। गुरु ग्रन्थ साहिब में उनकी 116 रचनाएं संग्रहीत हैं – 59 शबद और 57 श्लोक -वे सभी सुन्दर सरल ब्रज भाषा में हैं और उनके लिए तेग़ बहादुर साहिब ने राग जय जयवंती का उपयोग किया जो सनातन परंपरा में शौर्य तथा वीरता की राग है। उन्होंने कई नयी रागों की रचना भी की। श्री गुरु ग्रन्थ साहिब के नौवे महला ( खंड ) में उनके श्लोक उनकी आध्यात्मिक ऊंचाई तथा दर्शन पर गहरी पकड़ के द्योतक हैं। उनकी रचनाएं सब ब्रज भाषा में, उनका जीवन अधिकांशतः पंजाब के बाहर बीता, वे पंजाब के नहीं- पूरे ” हिन्द की चादर’ कहलाये , उनकी वीरता तथा अध्यात्म ने असंगठित , हताशा से भरे समाज में नवीन प्राण फूंके और मुग़लों को चुनौती दी कि “” भै काहू को देत नहि , नहि भय मानत आन “- न मैं किसी को भय देता हूं। न किसी का भय मानता हूं। गोविन्द , हरि और श्री राम उनके अधरों पर सदैव रहा।

उनकी रचनाएं नौवे महले में हैं, उनके श्लोक जब गुरुद्वारों में गए जाते हैं तो भक्तो की आंखों में भक्ति के अश्रु उमड़ पड़ते हैं, यह इतने सरल हैं मानो आप हिंदी के दोहे सुन रहे हों। देखिये –

गुन गोबिंद गाइओ नही जनमु अकारथ कीनु ॥ कहु नानक हरि भजु मना जिह बिधि जल कउ मीनु ॥

सभ सुख दाता रामु है दूसर नाहिन कोइ ॥ कहु नानक सुनि रे मना तिह सिमरत गति होइ ॥

जिह घटि सिमरनु राम को सो नरु मुकता जानु ॥ तिहि नर हरि अंतरु नही नानक साची मानु ॥

यह विडम्बना है कि गुरु तेग़ बहादुर जी की बानी भारतीय हिंदी साहित्य के किसी पाठ्यक्रम में नहीं पढाई जाती। उनकी बानी सम्पूर्ण भारत के विद्यालयों और विश्विद्यालयों में अध्ययन का का अभिन्न अंग होनी चाहिए।

तेग बहादुर जी का विवाह , 1633 में माता गुजरी के साथ हुआ। ध्यान , साधना , गुरु- पिता के साथ प[प्रवास करते हुए उनको एकांत वस् में साधना का मन हुआ और वे 1656 में अमृतसर के पास बकाला में चले गए. इस बीच उनके पिता गुरु हरगोबिन्द का 1644 में निधन हो गया था , और गुरु गद्दी पर गुरु हर राय ( 1630 – 1661 ) और गुरु हर किशन ( 1656 – 1664 ) विराजमान हुए थे। गुरु हरकिशन ने अपने अंतिम समय में ” बाबा बकाले ” का उच्चारण किया जिससे शिष्यों को प्रतीत हुआ कि अगले गुरु बकाला में मिलेंगे। वहां तेगबहादुर जी साधना में थे – सब शिष्य उनके पास पहुंचे और उनको प्रणाम करते हुए गुरु गद्दी पर नौवें गुरु के रूप में उनको विराजित किया।

गुरु तेग बहादुर जी ने अपना जीवन अध्यात्म चर्चा और भक्ति के प्रसार में बिताया, गुरु नानक की बानी को देश के कोने कोने में ले गए- उन्होंने किरतपुर के बाद शिवालिक पहाड़ियों के आधार पर चक्क ननकी नगर को आनंदपुर साहेब नाम से पुनः बसाया। सूर्य ग्रहण के समय उन्होंने कुरुक्षेत्र की यात्रा की और उपदेश दिए , फिर वे प्रयाग और वाराणसी की यात्राओं पर आये, गंगा स्नान किये, प्रयाग में वहां की प्राचीन सनातन परंपरा के अनुसार पंडों के बही में गुरु साहेब के हस्ताक्षर भी मिलते हैं।

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