इतिहास की पीड़ा उकेरता फिल्मकार, ऋत्विक घटक ने दिखाई सिनेमा को नई दिशा

ऋत्विक घटक की रचनात्मकता ने फिल्मों को मनोरंजन से आगे बढ़ाकर समाज की पीड़ा व संघर्ष का आईना बना दिया। विभाजन की त्रासदी और विस्थापन की वेदना को उन्होंने बड़े पर्दे पर ऐसे उतारा किउनका हर फ्रेम आज भी सोचने को मजबूर करता है। ऋत्विक घटक की जन्मतिथि (4 नवंबर) पर संदीप भूतोड़िया का आलेख…
जब सिनेमा जगत ऋत्विक घटक के जन्म शताब्दी वर्ष (4 नवंबर, 1925) का स्मरण कर रहा है, यह समय उनके जटिल, गहरे और आज भी प्रासंगिक सिनेमा को नए सिरे से समझने का है। अपने उतार-चढ़ाव भरे करियर में उन्होंने भले ही कुछ एक फिल्में निर्देशित कीं, लेकिन उनका काम भारतीय और वैश्विक सिनेमा की भाषा को नई दिशा देता है। वे न केवल बांग्ला फिल्मों में बल्कि सिनेमायी आधुनिकता में भी आधारभूत व्यक्तित्व हैं। व्यक्तिगत पीड़ा और राजनीतिक आघात को उन्होंने जिस नवाचारी शैली के साथ जोड़ा, उसने पीढ़ियों के फिल्मकारों और दर्शकों को झकझोरा है।
सिनेमा में विभाजन की सच्चाई
1947 का भारत-विभाजन ऋत्विक घटक के जीवन और रचनात्मकता दोनों पर गहरी छाप छोड़ गया। ढाका में जन्मे ऋत्विक लाखों विस्थापितों की तरह बंगाल के बंटवारे के शिकार बने। जहां अधिकतर समकालीन फिल्मकारों ने विभाजन को या तो किनारे से छुआ या उसकी हिंसा तक ही सीमित रखा, वहीं ऋत्विक की फिल्में विभाजन के मनोवैज्ञानिक, सांस्कृतिक और अस्तित्वगत घावों को केंद्र में रखती हैं। उनकी प्रसिद्ध विभाजन त्रयी ‘मेघे ढाका तारा’ (1960), ‘कोमल गांधार’ (1961) और ‘सुवर्णरेखा’ (1965) विस्थापन के आघात, पहचान खोने और खंडित संसार में संपूर्णता की लालसा को आवाज देती हैं।
ये फिल्में काव्यात्मक और रूपकात्मक चिंतन हैं, एक राष्ट्र और उसके लोगों का, जो अर्थ की तलाश में हैं। ‘मेघे ढाका तारा’ की नीता और ‘सुवर्णरेखा’ की सीता सिर्फ पात्र नहीं, त्याग और सहनशीलता की प्रतीक बनकर इन फिल्मों में उभरती हैं। विचारधारा और दृष्टिकोण ऋत्विक घटक की राजनीति और उनकी कला-दृष्टि को अलग नहीं किया जा सकता। मार्क्सवादी विचारों से प्रभावित और भारतीय जन नाट्य संघ से जुड़े ऋत्विक अच्छाई और बुराई की श्वेत-श्याम तस्वीरों से संतुष्ट नहीं थे, बल्कि उन्होंने संकट के समय मानवीय अनुभवों की जटिलताओं को गहराई से समझने का प्रयास किया।
राष्ट्रवादी आंदोलन और वामपंथी आदर्श, दोनों की विफलता से उनका मोहभंग हुआ, जिसमें विस्थापितों और हाशिए के लोगों की पीड़ा का समुचित समाधान नहीं हो पाया। उदाहरण के लिए ‘कोमल गांधार’ में कला आंदोलन की सामूहिक ऊर्जा राजनीतिक और व्यक्तिगत संघर्षों में बिखर जाती है। घटक का सिनेमा दर्शकों को सांत्वना नहीं देता, बल्कि आत्ममंथन के लिए विवश करता है।
फिल्में जो देती हैं सीख
शैली और संवेदना ऋत्विक घटक की सिनेमायी भाषा उन्हें समकालीन सत्यजित राय और मृणाल सेन से अलग करती है। ऋत्विक घटक ने मिथक और आधुनिकता, लोककथा और राजनीति, यथार्थ और अभिव्यक्तिवाद को अद्वितीय ढंग से गढ़ने की कोशिश करते हैं। उनकी फिल्म ‘सुवर्णरेखा’ में नदी पोषण और विस्मरण दोनों का प्रतीक बनती है। उनकी फिल्मों में संगीत- खासतौर पर रवींद्र संगीत और शास्त्रीय धुनें, भावनाओं को और गहराई देती हैं।
ऋत्विक की फिल्मों का नाटकीय स्वर दर्शकों को भीतर तक हिला देता है। ‘मेघे ढाका तारा’ का वह दृश्य, जब नीता अपनी बहन और मंगेतर का सच जानकर सीढ़ियों से उतरती है और पृष्ठभूमि में चाबुक जैसी आवाज गूंजती है, आज भी अविस्मरणीय है। जीवन भर रहे उपेक्षित दुर्भाग्यवश ऋत्विक को जीवनकाल में वह पहचान नहीं मिली, जिसके वे हकदार थे। उनकी फिल्में निर्माताओं ने कई बार ठुकराईं और दर्शकों से भी बहुत कम सराहना मिली।
आर्थिक तंगी, शराब और मानसिक स्वास्थ्य का बिगड़ना उनके जीवन के अंतिम वर्षों पर हावी रहा। 1976 में केवल 50 वर्ष की अवस्था में लगभग गुमनामी में ऋत्विक इस दुनिया से चले गए। उन्होंने कहा था, ‘मैंने अपनी फिल्मों को सब कुछ दे दिया, अब मेरे पास कुछ नहीं।’ यह उनका सच था- उन्होंने अपना दर्द, जुनून व आशा पूरी तरह सिनेमा में उड़ेल दिया था।
सकंट पर आधारित कहानियां
पुनर्खोज और प्रभाव मृत्यु के बाद भी ऋत्विक घटक की प्रतिष्ठा लगातार बढ़ी। फिल्मोत्सवों, शोध कार्यों और उनके शिष्यों कुमार साहनी और मणि कौल ने उनकी विरासत को आगे बढ़ाया। साहनी की ‘माया दर्पण’ और कौल की ‘उसकी रोटी’ में उनकी प्रयोगधर्मिता और दार्शनिक गहराई झलकती है। आज जब दुनिया शरणार्थी संकट, पहचान की राजनीति और सांस्कृतिक विखंडन से जूझ रही है, तब ऋत्विक घटक का सिनेमा और भी प्रासंगिक लगता है।
उनके पात्र सिर्फ खोए हुए वतन के नहीं, बल्कि खोए हुए आदर्शों के भी प्रतीक हैं। जब हम 2025 में ऋत्विक घटक का शताब्दी वर्ष मना रहे हैं, तो जरूरत केवल स्मरण की नहीं बल्कि पुनर्खोज की है। फिल्म महोत्सव, अकादमिक सम्मेलन, डिजिटल पुनर्स्थापन और स्ट्रीमिंग मंच उनकी कृतियों को नई पीढ़ियों तक पहुंचा रहे हैं। उनकी विरासत हमें याद दिलाती है कि सिनेमा समाज के आत्मा का आईना और सच कहने का हथियार है। उन्हें याद करना इतिहास के अधूरे काम से सामना करना भी है।





