जम्मू-कश्मीर: घाटी में मतदान तो निपटा शांतिपूर्ण, लेकिन सरकार का सवाल भारी!

राज्य में एक दशक से प्रतीक्षित विधानसभा चुनाव मंगलवार को शांतिपूर्ण संपन्न हो गए। मतदाताओं ने पार्टियों और प्रत्याशियों के भाग्य का फैसला ईवीएम में बंद कर दिया। तीन चरण में संपन्न चुनाव ने कई इतिहास बनाए। कश्मीर में पिछले विधानसभा व लोकसभा चुनाव से ज्यादा वोटिंग हुई। राज्य में चार पूर्व मुख्यमंत्री हैं, पर इस बार सीएम चेहरे के रूप में कोई भी सामने नहीं आया।
दिलचस्प यह भी कि तीन पूर्व सीएम फारुक अब्दुल्ला, गुलाम नबी आजाद व महबूबा मुफ्ती ने चुनाव ही नहीं लड़ा। कांग्रेस व नेशनल कॉन्फ्रेंस में गठबंधन हुआ। गठबंधन के नेता व पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला न-न करते हुए चुनाव लड़े। वह भी एक नहीं दो सीटों पर। इसके बावजूद गठबंधन ने उन्हें सीएम चेहरे के रूप में सामने नहीं किया। इसी तरह भाजपा ने अपने प्रदेश अध्यक्ष रवींद्र रैना को मैदान में उतारा। चुनाव बाद उनकी नई भूमिका का संकेत देते हुए बीच चुनाव नया कार्यकारी अध्यक्ष भी बना दिया। पर, उन्हें सीएम चेहरा घोषित नहीं किया।
पिछले चुनाव तक बहिष्कार की वकालत करने वाले जमात और हुर्रियत से जुड़े कई चेहरे चुनावी प्रक्रिया का हिस्सा बने। जेल में बंद अलगाववादी नेता व सांसद इंजीनियर रशीद चुनाव प्रचार के लिए बाहर आए तो सरजन बरकती ने जेल से चुनाव लड़कर सुर्खियां बटोरीं। इन बदली परिस्थितियों व माहौल में भाजपा दावा कर रही है कि वह पहली बार अपने बलबूते सरकार बनाएगी। एनसी-कांग्रेस गठबंधन का दावा है कि वह स्पष्ट जनादेश पाएगी। पीडीपी कुर्सी की बात तो नहीं कर रही, लेकिन कह रही है कि सत्ता की मास्टर चाभी उसके ही हाथ रहेगी।
लेकिन, पिछले तीन चुनावों से गठबंधन सरकारों का दाैर देख रहे जम्मू-कश्मीर के लोगों के गले के नीचे राजनीतिक दलों के दावे उतर नहीं रहे हैं। ऐसे में सबसे बड़ा सवाल यही है कि यदि भाजपा या एनसी-कांग्रेस गठबंधन को स्पष्ट बहुमत न मिला, तब क्या होगा? कैसे समीकरण बनेंगे? कौन किसके साथ जाएगा और कौन कैसे सरकार बनाएगा? एक दूसरे के खिलाफ जमकर आरोप-प्रत्यारोप लगाने वाले क्या फिर से हाथ मिलाएंगे? क्या अनुच्छेद-370 जैसे एक ही मुद्दे पर अलग-अलग जनादेश मांगने वाले फिर एक साथ आ पाएंगे? किसी को बहुमत न मिलने पर एलजी की भूमिका अहम हो जाएगी।
समीकरण-1 : सबसे बड़े दल के रूप में मिले सरकार बनाने का न्योता
यदि किसी भी दल को पूर्ण बहुमत (46 सीटें) न मिलें तो उपराज्यपाल सबसे बड़े दल को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित कर सकते हैं। यदि वह दल भाजपा हो तो देखना दिलचस्प होगा कि वह जादुई नंबर का जुगाड़ कैसे करती है? वजह, भाजपा अनुच्छेद 370 हटाने की सफलता को लेकर चुनाव मैदान में थी। दूसरी ओर, अन्य दलों ने इसके विरोध में चुनाव लड़ा। कांग्रेस जरूर चुप रही। ऐसे में सबकी नजरें होंगी कि भाजपा किसे साधती है व किन शर्तों पर साथ ले पाती है।
एनसी व पीडीपी दोनों ही भाजपा के साथ पहले सत्ता साझा कर चुके हैं। इस चुनाव में एनसी-कांग्रेस का गठबंधन है। पीडीपी पिछली बार से कमजोर मानी जा रही है। ऐसे में कुछ शर्तों के साथ वह भाजपा संग आ जाए तो चौंकना नहीं चाहिए। पिछली सरकार में दोनों साथ थे।
कई सीटों पर निर्दलीयों ने मजबूत उपस्थिति दिखाई है। भाजपा इन्हें साध सकती है। इसके अलावा वह अल्ताफ बुखारी की अपनी पार्टी, इंजीनियर रशीद के संगठन से चुनाव लड़े निर्दलीयों व जमात से जुड़े सदस्यों की जीत पर, उन्हें साधने का प्रयास कर सकती है।
समीकरण-2 : एनसी-कांग्रेस गठबंधन को मिले सरकार बनाने का मौका
यदि एनसी-कांग्रेस गठबंधन सबसे ज्यादा सीटें जीता तो उपराज्यपाल उसे न्योता दे सकते हैं। पीडीपी ने राज्य में एनसी के विकल्प के रूप में ही जगह बनाई है। जमात व इंजीनियर जैसे नए सियासी खिलाड़ी भी घाटी में एनसी के विकल्प के रूप में ही जगह बना रहे हैं। ऐसे में गठबंधन इनमें से किसे व कैसे साधता है, यह देखने वाली बात होगी।
संभावना-1: एनसी के साथ पीडीपी भी इंडी अलायंस का हिस्सा है, पर राज्य में एनसी-पीडीपी की राहें जुदा हैं। लेकिन, अब चुनाव बाद भाजपा को रोकने के नाम पर ये एक साथ आ जाएं। हालांकि, यह बहुत आसान नहीं है।
संभावना-2 : घाटी में असरदार ज्यादातर छोटी पार्टियां व कई निर्दल एक समान विषय अनुच्छेद 370 की वापसी व पत्थरबाजों को रिहा कराने के नाम पर चुनाव लड़े हैं। ये भाजपा को रोकने के नाम पर एक साथ आ जाएं।
संभावना-3 : इंजीनियर रशीद को अलगाववादी विचारधारा समर्थक एक तबका हुर्रियत के विकल्प के रूप में देख रहा है। घाटी में इंजीनियर समर्थक कई प्रत्याशी चुनाव जीत सकते हैं। ऐसे में रशीद भी पत्थरबाजों को छुड़ाने व अपने समर्थकों के काम कराने के लिए सत्ता के साथ चले जाएं।
समीकरण – 3 भाजपा व एनसी दोनों को अनुमान से काफी कम सीटें मिलें और दूसरों पर निर्भरता अधिक हो
एनसी को घाटी में पीडीपी के अलावा इंजीनियर रशीद व जमात से जुड़े प्रत्याशियों की तगड़ी चुनौती झेलनी पड़ी है। उसे अनुमान से कम सीटें मिलीं तो छोटे दलों व निर्दलीय जीतने वाले विधायकों की भूमिका बढ़ जाएगी। तब सरकार बनाने में कम सीटें हासिल करने वाले दलों को साधने की कुशलता देखने लायक होगी। पूर्व में देखा जा चुका है कि अधिक सीटें लाने वाले सत्ता से बाहर रह गए और कम वाले सीएम की कुर्सी तक पहुंच गए। या कम सीट वाले तोल-मोल में पहले सीएम की कुर्सी पा गए और ज्यादा वालों को इंतजार करना पड़ा। तब पीडीपी व इंजीनियर रशीद जैसे नेता किंगमेकर या सत्ता के केंद्र बन सकते हैं।
गठबंधन की सियासत के तीन प्रयोग, तीनों बार जम्मू का रोल
पहला : तीन-तीन साल के सीएम के लिए पीडीपी-कांग्रेस का गठबंधन : 2002 में कुल 87 सीटें हुआ करती थीं। इनमें जम्मू में 37, कश्मीर से 46 और लद्दाख में चार सीटें थीं। एनसी को कुल 87 सीटों में से 28 सीटें (कश्मीर क्षेत्र से 19 और जम्मू से 9) मिलीं। पीडीपी को कश्मीर से 16 सीटें मिलीं। जम्मू में खाता नहीं खुला। सबसे बड़ा दल होने के बावजूद एनसी सत्ता से बाहर रही। 16 सीटें पाने वाली पीडीपी ने 20 सीटें (जम्मू से 15 और कश्मीर से 5 सीटें) निकालने वाली कांग्रेस से हाथ मिलाया। कांग्रेस व पीडीपी ने तीन-तीन साल सीएम के फार्मूले पर रजामंदी बनाई। पहले तीन साल तत्कालीन पीडीपी मुखिया मुफ्ती मोहम्मद सईद और आखिरी तीन साल कांग्रेस के गुलाम नबी आजाद सीएम रहे।
दूसरा : एनसी-कांग्रेस ने मिलाया हाथ, 28 सीटें जीतकर उमर छह साल रहे सीएम : 2008 में इन्हीं 87 सीटों में से एनसी को फिर 28 सीटें ही मिलीं। इनमें कश्मीर में 22 व जम्मू में छह सीटें थीं। पीडीपी ने अपनी सीटों में इजाफा किया और कश्मीर में 19 व जम्मू में दो सीटें जीतीं। कांग्रेस 17 सीटें जीतने में सफल रही। उसे जम्मू में 13 और कश्मीर में चार सीटों से संतोष करना पड़ा। भाजपा ने 11 सीटें जीतीं। ये सभी जम्मू की थीं। लेकिन, इस बार सत्ता का समीकरण एनसी ने बनाया। एनसी ने जम्मू की नंबर एक पार्टी के रूप में दोबारा उभरी कांग्रेस से हाथ मिलाया। इस बार सीएम उमर अब्दुल्ला हुए। अब्दुल्ला पूरे छह साल सीएम रहे।
तीसरा : धुरविरोधी विचार वाले पीडीपी-भाजपा का गठबंधन सत्ता में : 2014 के विधानसभा चुनाव में पीडीपी को 28, भाजपा को 25, एनसी को 15 और कांग्रेस को 12 सीटें मिलीं। खास बात ये थी कि बीजेपी की सभी 25 सीटें जम्मू से थीं। धुर विरोधी विचारधारा वाले दलों पीडीपी व भाजपा ने हाथ मिला लिया। 2015 से 16 तक मुफ्ती मोहम्मद सईद और उनके निधन के बाद मुफ्ती की बेटी महबूबा मुफ्ती सीएम रहीं। भाजपा पहली बार राज्य की सत्ता में साझीदार बनकर अपने डिप्टी सीएम व मंत्री बनाने में सफल रही। लेकिन, बुनियादी विचारधारा के विपरीत बना यह गठबंधन 2018 में टूट गया। लगातार यह तीसरा चुनाव था जब जम्मू संभाग में चुनाव जीतने वाली पार्टियों के रहमोकरम पर सरकार बनी थी।