सहारनपुर हिंसा में सियासत और संग्राम के बीच दलित वोट बैंक लपकने की होड़
सहारनपुर में हुई जातीय हिंसा के बाद सियासत तेज हो गई है. बसपा सुप्रीमो मायावती के दौरे के बाद एक बार फिर हिंसा भड़क उठी है. दलितों की देवी कही जाने वाली माया को बहुत कम ही जमीन पर देखा गया, लेकिन लगातार चुनावी हार और दलित वोट बैंक की छीनाझपटी ने उन्हें जमीन पर ला दिया. दलित वोट बैंक को एकजुट बनाए रखने के लिए मजबूर कर दिया. वहीं, बसपा से दरकते दलित वोट बैंक में सेंध लगा चुकी बीजेपी अब अपना दायरा बढ़ाने में तेजी से लगी है.
बीजेपी के लगातार प्रयास की वजह से लोकसभा और अब विधानसभा चुनाव में दलितों के वोट मिले. इस बात से बौखलाए कुछ दलित नेता उन्हें फिर से एकजुट करने में लगे हुए हैं. इस कड़ी में भीम आर्मी का नाम सबसे प्रमुख है. दलित अस्मिता और सुरक्षा के नाम पर बनाई गई भीम आर्मी के मुखिया चंद्रशेखर लगातार अपने जाति के लोगों को जोड़ने में जुटे हुए हैं. 22 मई को दिल्ली के जंतर-मंतर पर भीम आर्मी प्रदर्शन करते हुए अपनी शक्ति का एहसास दिलाने की कोशिश की है.
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यूपी में दलित आबादी करीब 21 फीसदी है. इनमें 56 फीसदी जाटव, हरिजन, 16 फीसदी पासी, 15 फीसदी धोबी, कोरी और बाल्मीकि, 5 फीसदी गोंड, धानुक और खटीक हैं. 2017 में हुए विधानसभा चुनाव में बसपा को दलित वोटों का केवल 25 फीसदी ही वोट ही मिला है. इसके मुकाबले में बीजेपी को 41 फीसदी और सपा को 26 फीसदी वोट मिला है. ये आंकड़े दिखाते हैं कि किस तरह दलित वोट बसपा से दरकते हुए बीजेपी के पाले में जा रहा है, जो माया की चिंता का सबब बना हुआ है.
दलित वोट बैंक पर राजनीतिक डोर
एक राजनैतिक समूह के बतौर खासकर उत्तर प्रदेश, पंजाब, बिहार और मध्य प्रदेश में चुनावों को प्रभावित करने की दलितों की क्षमता की वजह से हर राजनैतिक दल उन पर डोरे डालने की फिराक में रहता है. बीजेपी की 2014 के लोकसभा चुनाव में कामयाबी देश में दलितों की सियासी प्रासंगिकता का चमकता हुआ उदाहरण है, जिसमें माना जाता है कि दलितों वोट हिस्सेदारी 2009 के 12 फीसदी से दोगुनी होकर 24 फीसदी हो गई. एससी के लिए आरक्षित कुल 84 सीटों में से बीजेपी ने 40 पर जीत हासिल की थी.
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दलित जिधर गए, उधर जीत हुई
इनमें उत्तर प्रदेश की सभी 17 सीटें शामिल थीं. जो लोग इस जीत को महज मोदी लहर कहकर खारिज कर देते हैं, उनके लिए एक सूचना यह भी है कि 2014 के बाद से बीजेपी ने जिन राज्यों में अपनी सरकार बनाई, वहां कुल 70 आरक्षित सीटों में से उसने 41 पर जीत दर्ज की. दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि दलित जिधर गए, जीत उसी की हुई. उधर, 2014 के लोकसभा चुनाव में मायावती को एक भी सीट नहीं मिली थी. उसका वोट 19 फीसदी रह गया था. लेकिन मायावती ने इससे कोई सबक नहीं लिया.
बीजेपी की झोली में दलित वोट
एक सर्वेक्षण कहता है कि बीएसपी और कांग्रेस को हुए दलित वोटों के नुकसान का सीधा लाभ बीजेपी को मिला है. हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, राजस्थान और गुजरात जैसे द्विदलीय राज्यों में कांग्रेस को दलित वोटों का बहुत नुकसान उठाना पड़ा, जो सीधे बीजेपी की झोली में गए. 1990 के दशक में बीजेपी को हर दस दलित वोट में से बमुश्किल एक मिल पाता था, जबकि 2014 में हर 4 में से 1 दलित ने बीजेपी को वोट दिया. दलित वोटों ने यदि बीजेपी की चुनावी कामयाबी में योगदान दिया है, तो हार का भी सबब भी बना है.
बीजेपी की दलित रणनीति
बीजेपी की दलित रणनीति के तहत संघ के कार्यकर्ताओं से कहा गया कि वे दलित परिवारों को ‘गोद’ लें. उनके साथ भोजन करें. गांवों में भेदभाव के मद्देनजर संघ ने ‘एक कुआं, एक मंदिर, एक मशान’ का नारा भी गढ़ा. यूपी में संघ और बीजेपी के बीच चुनाव के लिए समन्वय का काम देख रहे कृष्ण गोपाल ने दलित चेतना यात्रा की योजना बनाई, जिसमें मोदी सरकार की दलितों के लिए बनाई कल्याणकारी योजनाओं के प्रति जागरूकता फैलाई गई. मायावती को ‘दलित की बेटी’ की जगह ‘दौलत की बेटी’ करार दिया गया.
दलित वोट बैंक की मची होड़
2014 के लोकसभा चुनाव के बाद ही तय हो गया था कि दलित वोट बैंक बसपा से खिसक चुका है. रही सही कसर 2017 में हुए विधानसभा चुनाव में पूरी हो गई. कभी दलित वोट पर दंभ भरने वाली मायावती के सामने ही उनका वोट बैंक बीजेपी के पाले में चला गया. मायावती से इतर कई दलित नेता ये नहीं चाहते कि दलित वोट बैंक बीजेपी के पाले में जाए, इसलिए उन्हें एकजुट करने के लिए और इस अवसर का लाभ उठाकर नया राजनीतिक मंच बनाने के उद्देश्य से भीम आर्मी कोशिश में लगी हुई है.