यहां संत पी लेते थे जहर, लाखों साल बाद जिंदा होने की थी ख्‍वाह‍िश!

जापान के बारे में कहा जाता है कि वह समय से बहुत आगे निकला हुआ देश है. यहां के लोगों ने ऐसे तकनीकी विकास और प्रयोग किए हैं जिनके बारे में कहा जाता है कि दुनिया के बाकी देशों को जापान की बराबरी करने में बहुत समय लगेगा. लेकिन इसके अलावा भी जापान के धर्म का इतिहास हैं यहां के संतो की कई परम्पराएं हैरान करने वाली होती हैं. 9वी सदी के जापानी साधुओं की एक अनोखी परंपरा के बारे में पता चला है जिसमें वे समाधि से पहले जहर पिया करते थे जिससे वे लाखों साल बाद फिर से जिंदा हो सकें. इसकी वजह अजीब है.

जापान के माउंट फूजी में एक इलाका ऐसा भी है जो टूरिस्ट के लिहाज से आकर्षक तो नहीं है, पर यहां जापानी साधुओं की समाधियां देखने को मिलती हैं. इन समाधियों के बारे में रोचक बात यह है कि इन साधुओं ने समाधि में शरीर नष्ट ना हो उसके लिए भी एक अजीब काम किया था.

इन पुराने जापानी साधुओं को सोकूशिनबात्सु कहा जाता है. ये साधु बौद्ध धर्म के पुराने स्वरूप शुगेंदो के अनुयायी थे. वे जिंदगी भर खुद को कड़े अनुशासन में रहते थे जिसमें खुद को खाने पीने से दूर रखना प्रमुख था. लेकिन अजीब बात यह है कि वे खुद को जहर भी दिया करते थे.

यह परंपरा 9वीं सदी के सोकूशिनबात्सु बौद्ध संतों में प्रचलित थी.

दरअसल समाधी में जापानी साधुओं का शरीर ममी के रूप में रहता है. और उनके शरीर इस ममी स्वरूप में खत्म ना हो जाए , इसके लिए ये जापानी साधु खुराब पर तो कड़ा काबू रखते ही थे, उन्होंने खतरनाक रूप से पेय पीने की आदत बनाई थी. तीन साल तक ये पुजारी बीज और फलीदानों को ही खाया करते थे लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि वे मेहनत नहीं करते थे. बल्कि वे अपने शरीर क बहुत थकाया करते थे जिससे उनके शरीर में फैट जमा ना हो. इसके अगले तीन साल तक वे केवल कंदमूल खाते थे. इसी दौरान वे उरूशी पेड़ से बनी एक जहरीली चाय भी पीने लगते थे.

इसका फायदा यह बताया जाता है कि इससे भले ही साधुओं को बहुत से शारिरिक कष्ट होते हैं पर ममी बनने पर उनके शरीर को किसी तरह कीटाणुओं और परजीवियों से नुकसान नहीं होता है और उनका शरीर सुरक्षित ही रह पाता है. इसके बाद सौ दिन तक वे केवल नमक का पानी पीते थे और मृत्यु पास होने पर वे अपने शिष्यों को उनके शरीर को एक लकड़ी के बक्से में रखने को कहते थे, जिसके साथ उन्हें जिंदा कोयले के साथ दफन कर दिया जाता था. माना जाता है कि इस प्रक्रिया में सफल होने पर ये साधु लाखों साल बाद ध्यान से बाहर निकलेंगे.

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