अंबाजी शक्ति पीठ जहां श्रीकृष्ण का हुआ मुंडन, श्रीराम को मिली शक्ति
गुजरात राजस्थान सीमा पर अरावली पहाड़ों पर बसा बनासकॉठा में है अंबाजी का मंदिर। यह मंदिर देश के 51 शक्तिपीठों में एक है। इस मंदिर को आद्यशक्ति पीठ कहा जाता है. यह मातारानी का सबसे बड़ा और 1200 साल पुराना प्राचीन मंदिर है. कहते है यहां देवी सती का हृदय गिरा था। मंदिर का शिखर 103 फीट ऊंचा है। मंदिर पर 358 स्वर्ण कलश स्थापित है। अब तो पूरे मंडप को स्वर्ण से सुसज्जित करने का काम चल रहा है। इसीलिए इस मंदिर को गोल्डन शक्तिपीठ के नाम से भी जाना जाता है। खास बात यह है कि मंदिर के गर्भगृह में मूर्ति नहीं बल्कि श्रीयंत्र की पूजा होती है और यंत्र को देखने की मनाही है। इसीलिए श्रद्धालु आंख पर पट्टी बांधकर करते है मां का दर्शन-पूजन। पुजारी की मानें तो न सिर्फ यहां माता यशोदा ने श्रीकृष्ण का मुंडन कराया था, बल्कि मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम को लंका पर विजय से पहले मां का आर्शीवाद मिला था। और तो और महषि बाल्मीकि ने इसी तपोभूमि से रामायण लिखने की शुरुआत की थी। इस पवित्र धाम में भगवान शिव और माता पार्वती का अटूट बंधन है। मां के चौखट पर कदम पड़ते ही मन आध्यात्म और शक्ति की अनुभूति से भर उठता है। नवरात्र के दिनों में यहां उत्सव का नजारा होता है, पूरा धाम सप्तशती के पाठ से गूंजता रहता है। आने वाले भक्त न सिर्फ मन्नतों की झोली भरकर ले जाते है, बल्कि ध्वजा चढ़ाकर मां को घर आने की निमंत्रण भी देते है और मां सुनती है हर भक्तों की पुकार, हर लेती है भक्तों की सारे कष्ट।
–सुरेश गांधी
जी हां, चमत्कार की ढेरों कहानियां अपने आंचल में समेटे मां अंबाजी जिस स्थान पर विराजमान है इसे शक्तिपीठ का दर्जा प्राप्त है। कहते है यहां मां सती का हृदय गिरा था. मंदिर की महत्ता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी सहित अमित शाह हो या अन्य मुख्यमंत्री नवरात्र में मां के दरबार में मत्था टेकना नहीं भूलते। यही वजह है कि सिर्फ नवरात्रि में ही नहीं बल्कि हर पर्वो से लेकर सामान्य दिनों में भी यहां श्रद्धालुओं का ताता लगा रहता है और उत्सव जैसा माहौल रहता है। नवरात्र में यहां देश के कोने-कोने से श्रद्धालु आते हैं. मंदिर परिसर में गरबा का भी आयेाजन होता है। इस मंदिर का निर्माण वल्लभी शासक सूर्यवंश सम्राट अरुण सेन ने चौथी शताब्दी में कराया था. समय-समय पर इस मंदिर का जीर्णोद्धार होता रहा है. इस मंदिर के गर्भगृह में एक गुफा है जहां मां की मूर्ति की जगह स्वर्ण निर्मित श्रीयंत्र स्थापित है. इसी श्रीयंत्र की यहां पूजा होती है. वह भी आंखों में पट्टी बांधकर। खूली आंखों से दर्शन-पूजन की मनाही है। श्री यंत्र के दर्शन करने के लिए उस दिवार में एक साधारण सा झरोखा छोड़ दिया गया है जहां से उस श्री यंत्र के दर्शन होते हैं।
यह मंदिर 103 फुट ऊंचा है और इसके शिखर पर 358 स्वर्ण कलश स्थापित है. जिसका वजन 3 टन से भी अधिक है. मां के इस मंदिर तक पहुंचने के लिए भक्तों को 999 सीढ़ियां चढ़नी होती हैं. भक्त जय-जय अंबे के घोष करते आगे बढ़ते जाते हैं। मां की भक्ति में भक्त सराबोर हो रहते है। मां का भोग मां के दरबार में ही लकड़ी और देसी घी से तैयार किया जाता है। पांचो पहर की आरती में भक्तों को मां का अलगःअलग-अलग रूपों में दर्शन होता है। पूर्णिमा के दिन यहां मेले का आयोजन होता है. खास यह है कि मां के स्वरूप का दर्शन कर भक्त गब्बर पहाड़ पर जरूर जाते हैं, क्योंकि मां इसी पहाड़ से प्रकट हुई हैं। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार अरासुरी अंबाजी मंदिर का पौराणिक महत्व है. इसका उल्लेख “तंत्र चूड़ामणि“ में भी मिलता है। यहां भगवान श्री कृष्ण का मुंडन संस्कार सम्पन्न हुआ था. लंका पर विजय से पहले भगवान श्रीराम भी शक्ति की उपासना के लिए यहां आ चुके हैं। नवरात्रि यानि देवी शक्ति के पूजन के दिनों में हर कोई मां आदिशक्ति की साधना में लीन रहता है। इन नौ दिनों में देवी मां के नौ रूपों का स्मरण उनकी पूजा की जाती है।
माता श्री अरासुरी अम्बिका मंदिर में श्री बीजयंत्र के सामने एक पवित्र ज्योति अटूट प्रज्ज्वलित रहती है। मंदिर की वर्तमान संरचना के निर्माण बारे में माना जाता है कि 14वीं शताब्दी में वल्लभी के सूर्यवंशी राजा अरुण सेन ने करवाया था। लेकिन अगर इस मंदिर के इससे भी पूर्व के इतिहास की बात करें तो पता चलता है कि 1200 ईसवी में यहां इससे भी भव्य मंदिर हुआ करता था जिसको मुगलों ने लुटपाट के बाद नष्ट कर दिया था। जिसके बाद इस मंदिर के जीर्णोद्धार का काम 1975 से शुरू हुआ था और तब से अब तक जारी है। श्वेत संगमरमर से निर्मित यह मंदिर बेहद भव्य है। मंदिर के पीछे की ओर प्राचीन काल का पवित्र मानसरोवर तालाब भी मौजूद है। कहा जाता है कि इस सरोवर का निर्माण अहमदाबाद के श्री तपिशंकर ने वर्ष 1584 से 1594 के मध्य करवाया था। यह मंदिर हिन्दू धर्म के लिए सबसे प्रमुख और सबसे बड़े तीर्थों में माना जाता है। यह मंदिर विदेशों में बसे गुजराती समुदाय के लिए विशेष आस्था और शक्ति उपासना का महत्व रखता है।
गुजरात और राजस्थान की सीमा पर अरावली पर्वत श्रंृखला में होने के कारण इसे ‘‘अरासुर माता’’ के नाम से भी पहचाना जाता है। मान्यता है कि इस शक्तिपीठ मंदिर में देवी अंबाजी अनादिकाल से अपने जग्रत रूप में निवास करती हैं। आदि शक्ति माता अम्बाजी इस ब्रह्माण्ड की सर्वोच्च ब्रह्मांडीय शक्ति का अवतार हैं। इसलिए अंबाजी के इस मंदिर में आने वाले उनके सभी भक्त उसी दिव्य और लौकिक शक्ति की पूजा करते हैं, जो अंबाजी के रूप में अवतरित हुई थीं। यह मंदिर देवी शक्ति के ह्दय भाग का प्रतीक होने के कारण 12 सबसे प्रमुख शक्तिपीठों में स्थान रखता है। दुर्गा शप्त सती और तंत्र चूड़ामणि के 52 शक्तिपीठ, देवी भागवत पुराण के 108 शक्तिपीठ, कालिका पुराण के 26 शक्तिपीठ और शिवचरित्र में वर्णित 51 शक्तिपीठों में भी इस शक्तिपीठ को प्रमुखता दी गई है।
गब्बर पर्वत है मां के पदचिन्ह
मंदिर से लगभग 3 किमी की दूरी पर गब्बर नामक पहाड़ है। इस पहाड़ पर भी देवी मां का प्राचीन मंदिर स्थापित है। माना जाता है यहां एक पत्थर पर मां के पदचिह्न बने हैं। पदचिह्नों के साथ-साथ मां के रथचिह्न भी बने हैं। अम्बाजी के दर्शन के उपरान्त श्रद्धालु गब्बर जरूर जाते हैं। गब्बर पर्वत के शिखर पर बने देवी के एक छोटे से मंदिर की पश्चिमी छोर पर दीवार बनी है। यहां नीचे से 999 सीढ़ियों के सहारे पहाड़ी पर पहुंचा जा सकता है। हर साल भाद्रपदी पूर्णिमा के मौके पर यहां बड़ी संख्या में श्रद्धालु जमा होते हैं। भाद्रपदी पूर्णिमा को इस मंदिर में एकत्रित होने वाले श्रद्धालु पास में ही स्थित गब्बरगढ़ नामक पर्वत श्रृंखला पर भी जाते हैं, जो इस मंदिर से दो मील दूर पश्चिम की दिशा में स्थित है। प्रत्येक माह पूर्णिमा और अष्टमी तिथि पर यहां मां की विशेष पूजा-अर्चना की जाती है। यहां फोटोग्राफी निषेध है। यह स्थान अरावली पर्वतमाला के घने जंगलों से घिरा हुआ है। यह पर्यटकों को प्राकृतिक सौंदर्य और आध्यात्मिकता का सही मिश्रण प्रदान करता है। अंबाजी माता मंदिर के आस-पास कई पर्यटन स्थल हैं, जहाँ पर्यटक घूमने जाते हैं। गब्बर हिल, अरासुर की पहाड़ियों पर, वैदिक नदी सरस्वती की उत्पत्ति के निकट है, जो अरावली की प्राचीन पहाड़ियों के दक्षिण-पश्चिम की ओर स्थित है। इसकी समुद्र तल से ऊँचाई 1,600 फीट है। गब्बर हिल की खड़ी पहाड़ी पर चढ़ना बहुत मुश्किल है।
पौराणिक मान्यताएं
श्री वाल्मिीकी रामायण में भी गब्बर तीर्थ का विशेष वर्णन मिलता है। रामाण की एक कथा के अनुसार, भगवान राम और लक्ष्मण सीताजी की खोज में श्रृंगी ऋषि के आश्रम में भी गये थे, जहाँ श्रृंगी ऋषि ने उन्हें गब्बर तीर्थ में जाकर देवी अंबाजी की पूजा करने के लिए कहा था। माता अम्बाजी ने श्रीराम की भक्ति से प्रसन्न होकर उनको ‘‘अजय’’ नाम का वह चमत्कारिक तीर दिया था, जिसकी मदद से उन्होंने दुष्ट रावण को मार दिया। द्वापर युग में भगवान श्रीकृष्ण का मुंडन संस्कार माता यशोदा और पिता नंद ने इसी मंदिर के प्रांगण में करवाया था। इसके अलावा, महाभारत युद्ध से पहले पांडवों ने भी अपने निर्वासन काल के दौरान यहां आकर देवी अंबाजी की पूजा-अर्चना की थी। प्राचीन काल से ही मेवाड़ के सभी राजपूत राजा इस भवानी माता की नियमित रूप से भक्ति करने के लिए आया करते थे। इन राजाओं में राणा प्रताप का नाम भी शामिल है। कहा जाता है कि राणा प्रताप अपनी हर विजय के बाद अरासुरी अम्बा भवानी की विशेष भक्ति करने और उनका धन्यवाद देने के लिए आया करते थे।
स्थानिय दंतकथाओं और लोककथाओं के अनुसार राणा प्रताप ने माता अरासुरी अंबाजी के मंदिर में अपनी सबसे प्रिय तलवार भी भेंट कर दी थी। विभिन्न पुराणों और पौराणिक कथाओं में मान्यता है कि मां अम्बे यहां साक्षात विराजी हैं। इसलिए यह स्थान कई तांत्रिकों और तांत्रिक क्रियाओं के लिए भी प्रसिद्ध है। अनादिकाल से ही यहां प्रतिदिन मां अंबा के तीन अलग-अलग रूपों की पूजा होती आ रही है, जिसमें प्रातःकाल बाल रूप, दोपहर को युवा रूप और शाम को वृद्धा रूप में पूजा होती है। इसके अलावा मां अम्बा की अखंड जोत यहां सदियों से प्रज्जवलित है। चैत्र तथा शारदीय नवरात्र के अवसरों पर यहां का वातावरण अलौकिक, दिव्य, पावन और अद्भूत भक्तिमय हो जाता है। शारदीय नवरात्र के विशेष अवसर पर तो मंदिर में दर्शनार्थियों की लंबी-लंबी लाइनें लग जाती हैं। इस अवसर पर यहां खेले जाने वाला गरबा नृत्य विश्व भर के लिए सबसे खास और आकषण का केन्द्र बन जाता है।
कैलाश टेकरी
कैलाश टेकरी के ऊपर स्थित कैलाश हिल सूर्यास्त, अम्बाजी माता मंदिर से लगभग 2 किमी दूर स्थित है। एक महान सूर्यास्त के दृष्टिकोण के अलावा यह पहाड़ी एक पूजा स्थल भी है। पहाड़ी पर महादेव के मंदिर में एक शानदार कलात्मक पत्थर का गेट भी है। यहां पास में ही मंगलिया वन नामक एक उद्यान भी है, जो पहाड़ी से लगभग 2 किमी दूर है।
कुंभारिया
कुंभारिया अंबाजी मंदिर टाउन से डेढ़ किमी दूर स्थित है। कुम्भारिया, बनासकांठा जिले में सांस्कृतिक विरासत के साथ ऐतिहासिक, पुरातत्व और धार्मिक महत्व का एक गाँव है। यह जैन मंदिर से जुड़ा एक ऐतिहासिक स्थान है। इसमें श्री नेमिनाथ भगवान का ऐतिहासिक जैन मंदिर है जो 13वीं शताब्दी का है।
मानसरोवर
मानसरोवर मुख्य मंदिर के पीछे स्थित है। ऐसा कहा जाता है कि इस सरोवर का निर्माण अहमदाबाद के अम्बाजी के एक नागर भक्त श्री तपिशंकर ने 1584 से 1594 तक किया था। इस पवित्र सरोवर के दो किनारों पर दो मंदिर हैं, जिसमें से एक मंदिर महादेव का है और दूसरा अजय देवी का मंदिर है। ऐसा कहा जाता है कि अजय देवी, अंबाजी की बहन हैं। पर्यटक और भक्त इस मानसरोवर में पवित्र स्नान करने के लिए आते हैं।
कामाक्षी मंदिर
चिकला में स्थित, कामाक्षी मंदिर अंबाजी से लगभग एक किमी दूर है। दक्षिण भारतीय मंदिर की स्थापत्य शैली का सम्मान करते हुए इस मंदिर के मैदान में कई अन्य छोटे मंदिर भी हैं जो मुख्य मंदिर को समेटते हैं। आदित्य शक्तिमाता की विभिन्न अभिव्यक्तियों के आवास, इस मंदिर में भारत के कुछ सबसे महत्वपूर्ण शक्तिपीठ हैं।
सती कथा
शक्तिपीठ की पौराणिक कथा पौराणिक कथा के अनुसार माता दुर्गा ने राजा प्रजापति दक्ष के घर में सती के रूप में जन्म लिया. भगवान शिव से उनका विवाह हुआ. एक बार ऋषि-मुनियों ने यज्ञ आयोजित किया था. जब राजा दक्ष वहां पहुंचे तो महादेव को छोड़कर सभी खड़े हो गए. यह देख राजा दक्ष को बहुत क्रोध आया. उन्होंने अपमान का बदला लेने के लिए फिर से यज्ञ का आयोजन किया. इसमें शिव और सती को छोड़कर सभी को आमंत्रित किया. जब माता सती को इस बात का पता चला तो उन्होंने आयोजन में जाने की जिद की. शिवजी के मना करने के बावजूद वो यज्ञ में शामिल होने चली गईं. यज्ञ स्थल पर जब माता सती ने पिता दक्ष से शिवजी को न बुलाने का कारण पूछा तो उन्होंने महादेव के लिए अपमानजनक बातें कहीं. इस अपमान से माता सती को इतनी ठेस पहुंची कि उन्होंने यज्ञ कुंड में कूदकर अपने प्राणों की आहूति दे दी. वहीं, जब भगवान शिव को इस बारे में पता चला तो क्रोध से उनका तीसरा नेत्र खुल गया. उन्होंने सती के पार्थिव शरीर को कंधे पर उठा लिया और पूरे भूमंडल में घूमने लगे. मान्यता है कि जहां-जहां माता सती के शरीर के अंग गिरे, वो शक्तिपीठ बन गया. इस तरह से कुल 51 स्थानों पर शक्तिपीठ का निर्माण हुआ. वहीं, अगले जन्म में माता सती ने हिमालय के घर माता पार्वती के रूप में जन्म लिया और घोर तपस्या कर शिव को पुनः प्राप्त कर लिया.
मंदिर की वास्तुकला
मंदिर में आंगन शक्ति, द्वार शक्ति, गर्भ गृह और निज मंदिर मौजूद है। वह हमारी हिन्दू संस्कृति और परंपराओं को प्रदर्शित किया करती है। कलश के साथ माता रानी का पवित्र ध्वज और त्रिशूल भी जुड़ा है। दूसरी और गर्भगृह में माताजी के पवित्र गोख और मुख्य मंदिर एक विशाल मण्डप स्थित है। मंडप के सामने विशाल चहार चौक है। जिसमे माँ की पूजा अर्चना की जाती है। मंदिर की वास्तुकला अद्भुत और कलात्मक है। मूल मंदिर माध्यंम आकार का है। जिसमे माता की कोई तस्वीर या मूर्ति नहीं है। कहा जाता है। की माता रानी गर्भगृह की दीवार में बने छोटे से गोख में निवास करते है। पिछले 100 साल से अरसुरी माता अंबाजी मंदिर ट्रस्ट चलाया जाता है। उसके जरिये तीर्थयात्रियों और पर्यटकों के रहने, साउंड शो और लाइट की व्यवस्था की जाती है।
कैसे पहुंचें
इस मंदिर के दर्शन के लिए श्रद्धालु सड़क, हवाई और रेल मार्ग के जरिए जा सकते हैं. यहां का नजदीकी हवाई अड्डा अहमदाबाद का सरदार वल्लभ भाई पटेल इंटरनेशनल एयरपोर्ट है. जहां से अंबाजी मंदिर करीब 186 किलोमीटर दूर है. यहां का नजदीकी रेलवे स्टेशन अबू रोड स्टेशन है जहां से मंदिर की दूरी 20 किमी है. देश के किसी भी कोने से सड़क मार्ग के जरिए इस मंदिर तक पहुंचा जा सकता है. यह मंदिर पालनपुर से लगभग 65 किमी और माउंट आबू से 45 किमी की दूरी पर स्थित है.