जाने क्यों परशुराम यूपी की राजनीति के लिए क्यों हो गए इतने खास…

हिन्दू धर्म में परशुराम को भगवान विष्णु का छठा अवतार माना जाता है और मान्यता है कि उनका जन्म उत्तर प्रदेश में ही हुआ था, बावजूद इसके उत्तर भारत में परशुराम का शायद ही कोई मंदिर दिखे और किसी मंदिर में शायद ही उनकी कोई मूर्ति दिखे.

सियासी पार्टियों को यह बात शायद अखर गई और उनके बीच अचानक भगवान परशुराम की ऊंची-ऊंची मूर्तियां लगवाने की घोषणा की होड़ सी लग गई.

हालांकि इसके पीछे परशुराम के प्रति आस्था कम, ब्राह्मण समुदाय को ख़ुश करने की राजनीतिक आकांक्षा ज़्यादा दिख रही है लेकिन सवाल यह भी है कि परशुराम की मूर्तियां क्या वास्तव में ब्राह्मणों को ख़ुश करने का ज़रिया बन सकती हैं?

परशुराम की मूर्ति लगवाने की इच्छा सबसे पहले समाजवादी पार्टी ने जताई. पार्टी ने घोषणा की कि लखनऊ में भगवान परशुराम की 108 फ़ीट ऊंची मूर्ति लगाई जाएगी और कुछ अन्य जगहों पर भी मूर्तियां स्थापित की जाएंगी. पार्टी नेता और पूर्व मंत्री अभिषेक मिश्र कहते हैं कि यह योजना आज नहीं बनी है बल्कि वो और उनकी एक संस्था इसके लिए पिछले कई महीनोंसे काम कर रहे हैं.

“हम लोग अपनी एक संस्था परशुराम चेतना पीठ की ओर से यह प्रतिमा लगा रहे हैं और इसकी योजना उसी दिन बनी थी जब पिछले साल 25 दिसंबर को अटल जी की 21 फ़ीट की मूर्ति लगी थी. हमें लगा कि दक्षिण भारत में तो कई जगह भगवान परशुराम के मंदिर हैं और मूर्तियां हैं, लेकिन उत्तर भारत में ऐसा नहीं है.”

‘ब्राह्मण ख़ुद को पीड़ित महसूस कर रहा’
अभिषेक मिश्र कहते हैं, “आज यह चर्चा इसलिए महत्वपूर्ण हो गई है क्योंकि ब्राह्मण ख़ुद को पीड़ित महसूस कर रहे हैं. पिछले कुछ दिनों में न जाने कितने ब्राह्मणों की हत्याएं हो चुकी हैं पर उनकी कोई सुनवाई नहीं है. सरकार बनने के कुछ दिन बाद ही गोरखपुर में हरिशंकर तिवारी के यहां जिस तरह से अनावश्यक छापेमारी की कार्रवाई की गई और इस तरह का निशाना बनाने का सिलसिला जारी है, उससे ब्राह्मण समुदाय बुरी तरह से ख़फ़ा है.”

हालांकि भारतीय जनता पार्टी ने अभिषेक मिश्र के इस दावे को ग़लत बताते हुए पूछा है कि ख़ुद समाजवादी पार्टी की सरकार में ब्राह्मण कितने उपेक्षित थे.

पार्टी नेता और राज्य के उप-मुख्यमंत्री डॉक्टर दिनेश शर्मा कहते हैं, “जिस समाजवादी पार्टी के शासनकाल में भगवान परशुराम की मूर्तियां सबसे ज़्यादा तोड़ी गईं वो पार्टी अब मूर्ति लगाने की बात कर रही है. एसपी और बीएसपी दोनों ही पार्टियों ने हमेशा जाति की राजनीति की है. इनका काम एक जाति को दूसरे से और दूसरे को तीसरे से लड़ाने का रहा है.”

वहीं, समाजवादी पार्टी की इस घोषणा के तत्काल बाद बहुजन समाज पार्टी की नेता मायावती ने भी घोषणा कर दी कि उनकी पार्टी सत्ता में आने पर इससे भी बड़ी, यानी 108 फ़ीट से भी ऊंची मूर्ति लगवाएगी.

इस घोषणा के साथ ही मायावती ने समाजवादी पार्टी पर निशाना साधा कि यदि समाजवादी पार्टी को परशुराम की इतनी ही चिंता थी तो मूर्तियां तब लगवानी चाहिए थीं, जब वह सत्ता में थी.

हालांकि यह सवाल बहुजन समाज पार्टी के सामने भी उतना ही अहम है जितना समाजवादी पार्टी के लिए, लेकिन बहुजन समाज पार्टी में इसका जवाब देने को कोई नेता तैयार नहीं है.

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‘दूसरी सरकारों में इससे ज़्यादा हो रहा था’
दरअसल, पिछले महीने कानपुर में विकास दुबे और उनके साथियों की कथित एनकाउंटर में मौत, उसके बाद तीन दिन पहले ग़ाज़ीपुर के राकेश पांडेय की कथित मुठभेड़ में मौत और पिछले कुछ समय से ब्राह्मण समुदाय के लोगों की हो रही हत्याओं ने आम लोगों में सरकार के प्रति रोष उत्पन्न कर दिया है.

इस ग़ुस्से की अभिव्यक्ति न सिर्फ़ सोशल मीडिया पर देखी जा रही है बल्कि भारतीय जनता पार्टी के कई नेता भी इसकी वजह से बैकफुट पर दिख रहे हैं. इस बारे में पूछे गए सवालों का उनके पास कोई जवाब नहीं है. सिवाय इसके कि ‘दूसरी सरकारों में इससे भी ज़्यादा हो रहा था.’

जानकारों के मुताबिक़, राजनीतिक दलों ने ब्राह्मणों की इसी कथित नाराज़गी को भुनाने की कोशिश में परशुराम को महत्व देने की पहल की है.

वरिष्ठ पत्रकार योगेश मिश्र कहते हैं कि भगवान को जाति विशेष का बताकर या फिर उन्हें जातीय खांचे में बांटकर उसका राजनीतिक लाभ नहीं लिया जा सकता.

योगेश मिश्र कहते हैं, “यह ठीक है कि पिछले कुछ समय से ब्राह्मणों में कुछ नाराज़गी बढ़ी है लेकिन उस दूरी को सपा-बसपा परशुराम की मूर्ति लगाकर पाट देंगे, ऐसा दिखता नहीं है. ख़ासकर राम मंदिर के भूमिपूजन के बाद तो यह बिल्कुल भी नहीं लगता. चुनावी वक़्त में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब उस उपलब्धि को अपने तरीक़े से बताना शुरू करेंगे तो यह सारी नाराज़गी छूमंतर हो जाएगी.”

योगेश मिश्र कहते हैं कि राजनीतिक मूर्तियों में प्रतिद्वंद्विता ठीक है लेकिन भगवान को जाति में बांटना ये कोई स्वीकार नहीं कर पाएगा.उनका मानना है कि विपक्षी दलों की निगाह में ब्राह्मण समुदाय भले ही नाराज़ दिख रहा हो लेकिन बीजेपी के पास यह दलील भी है कि लंबे समय के बाद ऐसा संयोग बना होगा जब राज्य में पुलिस महानिदेशक और मुख्य सचिव दोनों ब्राह्मण जाति के ही हों.

हालांकि बीजेपी के कई नेता भी इस बात को मानते हैं कि पार्टी का सबसे बड़ा समर्थक वर्ग ब्राह्मण है और पिछले कुछ समय में ऐसी कई घटनाएं हुई हैं जिनसे इस समुदाय में बीजेपी के प्रति नाराज़गी बढ़ी है.

पार्टी के एक बड़े नेता नाम न छापने की शर्त पर कहते हैं, “आम ब्राह्मण की बात तो दूर, विधायकों और सांसदों तक की कोई सुनवाई नहीं है. कितने लोग खुलकर सरकार की आलोचना कर रहे हैं. इन सबको दूर नहीं किया गया तो विधानसभा चुनाव में पार्टी को नुक़सान होना तय है.”

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