जेठ की तपती धूप में घर के सुकून की तलाश में सैकड़ों किमी चलने को बेबस है हमारे प्रवासी मजदूर
हर शख्स यहां मजबूर सा है। खुद के ही वजूद से दूर सा है। खुशियों की तलाश में भटक रहा अब लगता एक मजदूर सा है। ये प्रवासी मजदूरों की बेचारगी है।
घर के सुकून की तलाश में सैकड़ों किमी चलने की बेबसी है। आंखों में जो सपनों के महल बसे थे, कोरोना ने ढहा दिए। ख्वाब कभी मुकम्मल ही नहीं हुए, सो प्रवासी मजदूरों की पनीली आंखों ने नए ख्वाब संजोना ही छोड़ दिया। सारी हसरतें परदेस में छोड़ दी। अब गांव की देहरी छूकर उसे ही माथे से लगाएंगे।
जेेेठ की भरी दोपहर 44 डिग्री तापमान था। सूरज आग उगल रहा था। जो सड़क तवे सी धधक रही थी, उस पर प्रवासी मजदूर जिदंगी की दौड़ लगा रहे थे।
ये दौड़ टूट गए सपनों को फिर से बुनने और उन्हें साकार करने की है। अपना दर छोड़ने और फिर परदेस से दर-बदर होने की पीड़ा बिहार के अररिया जिले के सऊद से ज्यादा कौन बता सकता है।
दिल्ली की एक स्टील फैक्ट्री में नौकरी करते थे। फैक्ट्री में ताला लगा, तो दो माह से हाथ खाली थे। जो कमाया, सब खर्च हो गया। अब घर जाने को चंद रुपये ही जेब में हैं।
दर्द बताते आंखें भर आईं, बोले, पहले नोटबंदी में फैक्ट्री बंद रही और काम नहीं मिला। फिर दिल्ली में प्रदूषण बढ़ा तो दो महीने तक खाली बैठना पड़ा।
अब कोरोना। परदेस गए तो कमाने थे, केवल दर्द लेकर लौटे हैं। उनके साथी मुनाजिर का दर्द भी जायज है। बोले, अब परदेस में कुछ नहीं है। वहां तो सब बेगाने है।
किसी तरह सड़कों भोजन बांटने वाले दानदाताओं की कृपा से इतने दिन काम चल गया। गांव में एक एकड़ खेती है, अब पसीना उसी पर बहाऊंगा, लेकिन परदेस का मुंह नहीं देखूंगा।
अपनी माटी भी छूटी और हाथ भी कुछ नहीं आया। कल शाम को दिल्ली से पैदल चले थे। कुछ दूर एक लोडर पर बैठे और फिर पैदल चलना पड़ रहा है।
बोले, जहां-जहां साधन मिलेगा, बैठेंगे, नहीं तो पैदल ही सफर कर आखिर घर पहुंच ही जाएंगे। पूर्णिया के मटरू, कटिहार के सनम की भी यही पीड़ा है। बोले, अब जल्द हालात नहीं ठीक होंगे, ऐसे में गांव ही अपना बेहतर है। राजस्थान के टपूकड़ा में कबाड़ का काम कर रहे विनोद, पंकज, मिंटू लखनऊ के रहने वाले हैं।
बोले,कल पैदल चले थे। महिलाएं और छोटे बच्चे साथ में हैं। दो स्थान पर पुलिस ने वाहन में बैठा, फिर पैदल चले। जेब में कुछ नहीं बचा।
लखनऊ में कुछ काम कर गुजारा करने का अरमान लेकर जा रहे हैं। जो होगा, प्रभु देखेंगे। मधुबनी के मुकेश, वैशाली के विशाल और उनके आधा दर्जन साथी अलवर में मजदूरी करते थे।
अब हाथ में कुछ नहीं है। अलवर से पैदल चलते-चलते शरीर जवाब दे गया, तो हाईवे थाने के ठीक सामने बने निगम के आश्रय स्थल पर आसरा मिला। कूलर की ठंडी हवा में कुछ देर थकान मिटा दी।
सरकार ने प्रवासी मजदूरों को वाहन से भेजने का इंतजाम तो किया है, लेकिन अभी भी सड़कों पर मजदूरों का कारवां थम नहीं रहा। जिन शहरों में ये मजदूर काम कर रहे थे, वहां से टुकड़ों में वाहनों पर सवार होकर आ रहे हैं।
एक वाहन उतारता है तो आगे जाने के लिए दूसरों वाहनों की तलाश में तपती दुपहरी कई किमी पैदल चलना पड़ता है। कहीं ट्रक से बैठकर मजदूर आ रहे हैं तो कहीं लोडर से।
प्रवासी मजदूरों का कहना है कि कई स्थानों पर उन्हें पुलिस ट्रकों में बैठा देती है, किराया फिक्स नहीं है, जो जेब में होता है दे देते हैं।