साहित्य अकादेमी और लेखकों की खेमेबंदी

साहित्य अकादेमी ने चुप्पी तोड़ी। तकरीबन 35 लेखकों के साहित्य अकादेमी पुरस्कार लौटाने के बाद उसकी कार्यसमिति ने प्रस्ताव पारित कर तर्कवादी बुद्धिजीवी एमएम कलबुर्गी की हत्या की निंदा की। केंद्र और राज्य सरकारों से कहा कि वे लेखकों पर ऐसे हमले रोकने के उपाय करें। साथ ही पुरस्कार लौटाने वाले साहित्यकारों से आग्रह किया कि वे अपना सम्मान वापस ले लें।
लेकिन ऐसा होने के पहले लेखकों की खेमेबंदी खुलकर सामने आ चुकी थी। नई दिल्ली में हुई अकादेमी की बैठक के मौके पर असंतुष्ट साहित्यकारों और उनके समर्थकों ने मौन जुलूस निकाला, तो उसके जवाब में लेखकों का एक दूसरा गुट आ खड़ा हुआ। इस समूह ने अपना नाम ‘जनमत” रखा है। वैसे तो पुरस्कार लौटाने की पहल हिंदी साहित्यकार उदय प्रकाश ने कलबुर्गी की हत्या के तुरंत बाद की थी, लेकिन उत्तर प्रदेश में दादरी कांड के बाद जब नयनतारा सहगल ने अपना सम्मान लौटाया, तो उसके बाद ऐसा करने का सिलसिला चल पड़ा। शशि देशपांडे और के. सच्चिदानंदन जैसे लेखकों ने साहित्य अकादेमी के अपने पद छोड़ दिए।
उन सबकी शिकायत है कि अकादेमी लेखकों और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के पक्ष में खड़ा होने में विफल रही है। मगर लेखकों के दूसरे समूह का आरोप है कि ये लेखक राजनीति कर रहे हैं। इनमें ऐसे साहित्यकार शामिल हैं, जिन्होंने नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने का विरोध किया था। आज भी उनका विरोध उसी भावना से प्रेरित है। मगर ‘जनमत” समूह के जवाबी प्रदर्शन में ज्यादातर ऐसे नाम शामिल नजर आए, जिनकी पहले से भाजपा समर्थक पहचान है। यानी उनका सियासी रुझान भी जाहिर है।
तो कुल तस्वीर यह है कि साहित्यकार समुदाय अपने-अपने राजनीतिक झुकावों के मुताबिक बंट गया है। सरकार विरोधी समूह समाज में असहिष्णुता बढ़ने और भारत की पहचान बदलने की कथित कोशिशों से खुद को बेचैन बताता है, मगर सरकार समर्थक समूह को ऐसी स्थिति नजर नहीं आती। इस बीच साहित्यकारों की सर्वोच्च संस्था होने के नाते साहित्य अकादेमी के सामने चुनौती पूरे लेखक समुदाय को साथ लेकर चलने की है। इसीलिए उसने खुद को लेखकों पर हुई हिंसा तक सीमित रखा। उसकी कार्यसमिति के एक सदस्य ने कहा कि सभी लेखक हत्याओं की निंदा करने के सवाल पर एकजुट हैं। मगर उसके प्रस्ताव से प्रतिरोधी लेखक समूह कितना संतुष्ट होता है, यह देखने वाली बात होगी।
फिलहाल अकादेमी इस्तीफा देने या पुरस्कार लौटाने वाले साहित्यकारों के निर्णय का इंतजार करने के मूड में है। अगले 17 दिसंबर को अकादेमी बोर्ड की बैठक होगी, जिसमें लेखकों के विरोध से उत्पन्न् स्थिति पर विचार होगा। बहरहाल, असंतुष्ट साहित्यकारों के लिए उचित यही होगा कि जब अकादेमी ने चुप्पी तोड़ दी है, तो वे पुरस्कार वापस लेने की उसकी अपील पर ध्यान दें। वे देश के हालत से खफा हैं, तो उस पर विरोध जताने के लिए दूसरे एवं रचनात्मक तरीके उन्हें ढूंढ़ने चाहिए। साहित्य की सर्वोच्च संस्था को यूं विवादास्पद बनाना किसी के हित में नहीं है।