लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को देनी होगी अग्निपरीक्षा, यहां प्रचंड हार का सिलसिला तोड़ने की चुनौती
चुनाव की अग्निपरीक्षा से एक बार फिर उत्तराखंड में कांग्रेस मुखातिब है। 2014 से प्रचंड हार का सिलसिला उसे चिढ़ा रहा है। पिछले पांच सालों में कांग्रेस का चुनावी प्रदर्शन बेहद खराब रहा है।
2014 लोकसभा चुनाव की बात करें, तो राज्य की पांचों सीटों पर उसे हार मिली। इसके बाद, 2017 के विधानसभा चुनाव को लें तो उत्तराखंड के चुनावी इतिहास में उसका सबसे शर्मनाक प्रदर्शन रहा। 70 सीटों में से कांग्रेस के हाथ सिर्फ 11 सीटें लगीं। इन तथ्यों की रोशनी में अब प्रचंड हार का सिलसिला तोड़ने की प्रचंड चुनौती कांग्रेस के सामने खड़ी है।
कांग्रेस को बहुत कम समय में चुनाव का बेहतर प्रबंधन करना है। लोकसभा चुनाव में प्रदेश अध्यक्ष प्रीतम सिंह की प्रतिष्ठा दांव पर होगी, उनकी अगुवाई में सबसे बड़ा चुनाव होने जा रहा है। राष्ट्रीय महासचिव हरीश रावत भले ही असम के प्रभारी हैं, लेकिन उत्तराखंड में कांग्रेस के प्रदर्शन में ऊंच-नीच होने पर जिम्मेदारी से बचने की स्थिति में वह भी नहीं होंगे।
कांग्रेस लाख कहती रहे कि 2016 में पार्टी के अंदर हुए सत्ता संग्राम के दौरान उसके प्रमुख नेताओं के भाजपा में शामिल होने का उस पर कोई असर नहीं पड़ा है, लेकिन आंकड़ें कुछ और बया करते हैं। 2017 के चुनाव में 70 में 57 सीटें भाजपा को मिलीं और भाजपा के टिकट पर चुनाव लडे़ कांग्रेस पृष्ठभूमि वाले नेताओं ने इसमें अहम भूमिका निभाई। सतपाल महाराज जैसे कद्दावर नेता 2014 में लोकसभा चुनाव के दौरान ही कांग्रेस को अलविदा कह चुके थे, लेकिन बाद में पूर्व सीएम विजय बहुगुणा, डॉ.हरक सिंह रावत, यशपाल आर्य, सुबोध उनियाल जैसे नेताओं के पार्टी छोड़ने से कांग्रेस और कमजोर हुई।
इन सभी नेताओं के बिना लोकसभा चुनाव में पार्टी को इस बार भी उतरना है। दरअसल, कांग्रेस के लिए सबसे बड़ी चुनौती अपने मनोबल को ऊंचा उठाने की है। हालांकि थराली उपचुनाव की बात करें या फिर नगर निकाय चुनाव, कांग्रेस हमेशा भाजपा के खिलाफ मजबूती से संघर्ष करते हुए दिखाई दी है। मगर लोकसभा चुनाव के महासंग्राम के लिए जैसे संघर्ष का भाव और तैयारी अपेक्षित है, वह नजर नहीं आ रही। संगठनात्मक स्तर की कमजोरियां शीशे की तरह एकदम साफ हैं। इस पर कांग्रेस कितनी जल्दी काबू पाती है, यह देखने वाली बात होगी।
कभी एक, तो कभी पांचों सीट भी जीती है कांग्रेस
उत्तराखंड में लोकसभा चुनाव के इतिहास की बात करें, तो ऐसा नहीं है कि कांग्रेस का प्रदर्शन हमेशा खराब रहा है। उत्तराखंड में भाजपा की सरकार रहते हुए 2009 के चुनाव में कांग्रेस ने भाजपा का यहां सूपड़ा साफ कर दिया था। तब पांचों सीट पर कांग्रेस जीती थी। इससे पहले, 2004 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को सिर्फ एक सीट पर विजय हासिल हुई थी, तब भाजपा के हिस्से तीन सीटें आई थीं। जबकि एक सीट सपा को मिली थी।
कांग्रेस की मुख्य ताकत
उत्तराखंड के भीतर कांग्रेस का भले ही संगठनात्मक ढांचा वर्तमान में कमजोर है, लेकिन उसकी सबसे बड़ी ताकत उसका कैडर है। नब्बे के दशक में भाजपा के उत्तराखंड में कदम पड़ने से पहले यहां कांग्रेस का ही राज रहा है। उसका कैडर गांव-गांव, गली-गली मौजूद है। यही वजह है कि कांग्रेस की सीटें भले ही कम हुई हों, लेकिन उसका वोट प्रतिशत हर चुनाव में लगभग स्थिर रहा है। इसके अलावा, केंद्र और राज्य सरकार की तमाम विफलताएं गिनाने के लिए उसके पास मौजूद हैं।
लोकसभा चुनाव को लेकर हमारी पूरी तैयारी है। भले ही कांग्रेस पूर्व में हारी हो, लेकिन मोदी सरकार का पांच और त्रिवेंद्र सरकार का दो साल का कार्यकाल जनता ने देख लिया है। घोर विफलता और नाकामी से भरा ये समय रहा है। जनता के सहयोग से कांग्रेस इस चुनाव में भाजपा को उखाड़ फेंकेगी।