भारतीय विकास या नव-उपनिवेशवाद का बाज़ार

nawupniveshwaadभारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का अमेरिकी दौरा भारत के किसी भी प्रधानमंत्री के अमेरिकी दौरों में से सबसे कामयाब दौरा माना जा रहा है| मोदी का अमेरिका में जिस तरह स्वागत हुआ वो किसी रॉक स्टार से कम नहीं था| मोदी ने जब-जब मंच संभाला तब-तब जैसे समां बांध दिया| लेकिन क्या था आखिर में मोदी का अमेरिका दौरा, क्या ये भारत के विकास की रेखा खिंच रहा है या एक बार फिर भारत को विश्व के लिए बाज़ार बना रहा है| क्या हम विकास के जिस फोर्मुले को अपना रहे है वो हमें नव-उपनिवेशवाद की ओर नहीं ले जा रहा है? एक ऐसा बाज़ार जहाँ सिर्फ खरीद और बिक्री के आगे और पीछे कुछ नहीं है| मोदी अमेरिका जाकर अपनी सरकार को एक स्टार्टअप की तरह शुरुवात करने वाली सरकार की तरह परिभाषित करते है| मोदी अमेरिका जाकर उद्योग जगत से जिस तरह मिलते है, फेसबुक, गूगल और एप्पल के सीइओ से मिलना| 500 कंपनीयों के सीइओ से मिलना और उन्हें भारत में निवेश के लिए प्रोत्साहित करना| भारत में अपनी पूंजी लाना और बिज़नस खड़े करना, भारत के संसाधनों का इस्तेमाल करते हुए मुनाफ़ा कमाना, ये सब भारत की विदेशी आर्थिक निर्भरता को बढ़ावा दे रहा है| जो कुछ नहीं नव-उपनिवेशवाद है|

नव-उपनिवेशवाद को समझने के लिए हमें पहले उपनिवेशवाद को समझाना पड़ेगा| उपनिवेशवाद का मतलब है “किसी एक क्षेत्र में बैंकिंग पूंजी का प्रसार
है”| एफडीआई के ज़रिये जो पूंजी भारत आएगी वो भारत की पूंजी न होकर विदेशी पूंजी होगी, जिसका मतलब भारतीय अर्थव्यवस्था भारतीय न होकर विदेशी अर्थव्यवस्था होगी| जैसे की ईस्ट-इंडिया कंपनी के दौर में विदेशी पूंजी का प्रवाह ने भारतीय अर्थव्यवस्था को तबाह किया| बड़े और बैंकिंग पूंजी ने भारत के छोटे और मध्यम वर्ग के कारखानों को तबह कर दिया| जिसने 1857 में भारत को आर्थिक उपनिवेशवाद से राजनीतिक उपनिवेशवाद में बदल दिया| क्या भारत की आर्थिक वैश्विक निर्भरता भारत की अर्थव्यवस्था की मजूबती प्रदान कर पायेगा या सिर्फ ये एक गुब्बारे की शक्ल लेकर रह जायेगा| आज सम्पूर्ण विश्व वैश्विक “निर्भरता के सिधांत” पर आगे बढ़ रहा है, जिसमें एक देश की अर्थव्यवस्था दुसरे देश की अर्थव्यवस्था पर निर्भर है| जहाँ विकसित देशों की अर्थव्यवस्था में होनें वाला ज़रा सी हलचल विकाशसील और गरीब देशों की अर्थव्यवस्था की दिलों की धड़कन बढ़ा देती है| इसके कुछ ताज़ा उदहारण हमारे सामने है, 2009 में अमेरिका में आई मंदी और 2015 में चीन में हुई आर्थिक हलचल|

नव-उपनिवेशवाद या यूँ कहें साम्राज्यवाद- किसी वास्तविक साम्राज्य को स्थापित न करके, आर्थिक बाज़ारी साम्राज्य की स्थापना करना है| आज भारत इस बाज़ारी साम्राज्य के विकास में लग गया है| जहाँ हम कल्याणकारी राज्य की बात न करके बाज़ार की बात कर रहे है| सरकार और राज्य ख़तम होते जा रहे है, बाजारों के विकास के लिए गवर्नेंस या यूँ कहे मैनेजमेंट का विकास हो रहा है| विश्वं आर्थिक व्यवस्था में राज्य का कोई स्थान नहीं रह गया है| इसका सबसे सरल उदहारण आईएमएफ, डब्लूटीओ, और वर्ल्ड बैंक है जिसका किसी भी देश को लोन देने की सबसे पहली शर्त होती है खुलापन, निजीकरण, उदारीकरण है| ये सब राज्य और सरकार को रोकते है बाज़ार को बढ़ाते है| देश की आर्थिक नीतियाँ देश के राजनेता न बना कर विदेशी व्यपारिक संघठन बना रहे है| अमेरिका से परमाणु करार के समय किस तरह अमेरिका भारत की परमाणु नीति को प्रभावित कर रहा था|

आज़ादी के बाद भारत ने एक ऐसी अर्थव्यवस्था अपनाई जिसमें भारत स्थाई विकास कर सकें| एक ऐसी मिश्रित अर्थव्यवस्था जिसमें बाज़ार से ज्यादा राज्य कल्याण पर जोर था| लेकिन 1991 के बाद से वैश्विक प्रतिस्पर्धा में भारत ने जैसे खुद को झोंक दिया है उसने भारत के स्थाई विकास के नमूनें को असफल कर दिया| वही भारत को “निर्भरता के सिधांत” के भरोसें छोड़ दिया है| वैश्विक अर्थव्यवस्था में “निर्भरता का सिधांत” सिर्फ और सिर्फ विकसित राष्ट्रों को फ़ायदा पहुँचाने का रास्ता है| आज ऊर्जा, धरती, जल, आकाश और अन्तरिक्ष के सारे संसाधन विकसित देशों के हाथों में निहित है|

 

आखिर भारत के लिए ये चिंता का विषय क्यों है, ये समझना इतना ही सरल है जितना ये जानना की आज भी देश में गरीबी किस हद तक विधमान है| भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र है लेकिन आज भी ये विकसित लोकतंत्र नहीं है| भारत की आर्थिक और सामाजिक पृष्ठभूमि की स्तिथि आज भी बहुत कमजोर है, गरीबी अपनें सबसें निचले स्तर पर है आर्थिक संसाधन आज कुछ सीमित हाथों तक ही है| जीडीपी और आर्थिक विकास, आज भारत का यहीं एक मूलमन्त्र रह गया है लेकिनं इस विकास की होड़ में गरीब और मध्यम वर्ग कहा खड़ा है| बैंकिंग पूंजी और बड़े प्रतिस्पर्धी उद्योगों की होड़ में कहीं भारत के छोटे और मध्यम वर्ग के उद्योग दब के न रह जाये?

हां, विदेशी पूंजी भारत की आर्थिक रफ़्तार को बढ़ाएगा, विकास की गति भी तेज करेगी| लेकिन, जैसे विदेशी पूंजी का भारत में आने से भारतीय अर्थव्यवस्था मजबूत होगी वैसे ही अचानक इस पूंजी का यहाँ से जाने से भारत की अर्थव्यवस्था कमजोर होगीं और ये कमजोरी भारत की पूरी तरह तोड़ भी सकती है| भारत विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) के जाल में फंसा हुआ एक मुल्क बन चुका है, विश्व बैंक के लिए दुनिया के तमाम देश सिर्फ तीन खांचों में फिट होते हैं, पहला- विकसित (डेवलप्ड), दूसरा- विकासशील (डेवलपिंग) और तीसरा- अल्प विकसित (अंडरडेवलप्ड)| विकसित बनने की होड़ में शामिल होकर भारत अपना सब कुछ बदल चुका है|

विश्व के जाने माने मानवशास्त्री डॉ. फेलिक्स ने अनुसार “जीडीपी और आर्थिक विकास| हां, निश्चित रूप से यही दो ऐसे शब्द हैं, जो दुनिया के सबसे शक्तिशाली झूठे शब्द हैं. ये दोनों पूरी सृष्टि को रसातल में ले जा रहे हैं| इनके लक्ष्यों को पाने के लिए सबसे पहले मानवीय और सांस्कृतिक मूल्यों को ध्वस्त करना पड़ता है| सुंदर और पहचान से जुड़ी परंपराओं का नाश करना पड़ता है| जब तरक्की की दौड़ नहीं थी, तब क्या विकास नहीं था? था, तब भी था, लेकिन उस विकास में मानव समुदाय के बीच आपसी रिश्ते की भी कद्र थी. अब तो तेजी से दूरियां बढ़ती जा रही हैं| वहीँ भारत में आर्थिक विकास और जीडीपी ने सत्ता, राजनीति, कॉरपोरेट और माओवादियों के बीच गठजोड़ बनाया है| इन चारों का गठजोड़ क्या कर रहा है, कैसे आपसी सहमति से सामंजस्य बैठाकर भारत जैसे देश को बर्बाद किया जा रहा है, इसे लोगों को बताने की जरूरत नहीं”|

आज भारत की अपने सतत विकास के साथ साथ घरेलु उद्योगों को मजबूत करने की आवश्यकता है| समाजशास्त्री देव-आशीष भट्टचार्य के अनुसार “भारत की विदेशों में जाकर ऐसे हाथ नहीं फ़ैलाने चाहिए बल्कि अपने देश के अन्दर ही ऐसे माहौल तैयार चाहिए ताकि हमारी उन पर निर्भरता न होकर उनकी निर्भरता हम पर होनी चाहिए”

वहीँ इन सब बातों के उलट कुछ ऐसे लोग भी है जो भारत में विदेशी निवेश की जरुरत को सही मानते है| अर्थशास्त्री आकाश जिंदल के अनुसार “वक़्त हमारा है, और अब सही समय है जब सबकों भारत में आकर निवेश करना चाहिए और अब वो करेगें भी| विदेशों से आने वाले निवेश से भारत के आर्थिक विकास की गति तेज होगी और भारत एक विकसित अर्थव्यवस्था बन के सामने आएगा|” वहीँ वो विदेशी निवेश पर भारत की निर्भरता भारत की नव-उपनिवेशवाद की और ले जा रही है के सवाल पर कहते है की “अब भारत पर इसका कोई प्रभाव नहीं होगा, क्योकिं भारत अब अपनी शर्तो पर विकास करेगा, और जिसे भी भारत के साथ व्यापार करना है उसे भारत के नियम, क्यादे-कानून मानाने होंगे”|

लेकिन अब ये देखना होगा की भारत की विदेशी निवेश पर निर्भरता भारत को किस ओर ले जाता है, आर्थिक विकास या फिर नव-उपनिवेशवाद|

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