सिर्फ राखी बांधना नहीं है रक्षाबंधन, बच्चों को सिखाएं रिश्तों का सही मतलब

बच्चे आसपास के माहौल से ही सीखते हैं और जब वे अपने बड़ों को आपस में अनबन करते देखते हैं तो उनके मन में त्योहारों और रिश्तों को लेकर गलत धारणा बन सकती है। ऐसे में रक्षाबंधन सिर्फ एक रस्म बनकर रह जाता है। मीनाक्षी अग्रवाल इंगित कर रही हैं कि क्या वाकई हम बच्चों को बता पा रहे हैं इस त्योहार का असली महत्व।
रक्षाबंधन का पावन पर्व भाई-बहन के पवित्र और स्नेहमयी रिश्ते की याद दिलाता है। इस त्योहार का अर्थ ही है कि संबंधों की मिठास हमेशा बनी रहे, न कि उसे एक दिन की औपचारिकता तक सीमित कर दिया जाए। मगर क्या हम इस भाव को परिवार के हर सदस्य तक समान रूप से पहुंचा पा रहे हैं?आमतौर पर हर माता-पिता अपने बच्चों, खासकर बेटे और बेटी के बीच स्नेह, समझदारी और सहयोग की उम्मीद रखते हैं। वे चाहते हैं कि उनका बेटा अपनी बहन की रक्षा करे, उसका सम्मान करे और हर परिस्थिति में उसका साथ दे, लेकिन जब बात खुद एक पिता और उनकी बहन यानी बुआ के रिश्ते की आती है, तो उत्साह क्यों दब सा जाता है?
एक गलत छवि का शिकार
भारतीय समाज में बुआ के रिश्ते को अक्सर नकारात्मक नजर से देखा जाता है। फिल्मों और धारावाहिकों में बुआ को प्रायः ईर्ष्यालु, झगड़ालू, या स्वार्थी के रूप में दिखाया जाता है। वहीं पौराणिक कहानियों में भी ‘होलिका’ जैसी पात्रों को बुआ के रूप में जोड़कर प्रस्तुत किया जाता है। धीरे-धीरे यह छवि लोगों के मन में गहराई से बैठ गई है। यही छवि कुछ भाभी की भी बना दी गई है कि वे ननद का स्वागत-सत्कार नहीं करती हैं।
हर परिवार अलग है और हम एक ही आईने से रिश्तों की नहीं देख सकते। टीवी और फिल्मों ने भी बुआ को जो नकारात्मक छवि दी है, उससे बाहर निकलना जरूरी है। कई बार देखा गया है कि भाभी और ननद में एक दूसरे से टकराव, शिकायत या असहमति की स्थिति बन जाती है जिसमें गलतफहमी दोनों तरफ से हो सकती है। ऐसी स्थिति में बुआ का घर आना-जाना बोझिल और औपचारिक सा लगने लगता है। यह बात बच्चों के मन में भी बैठ जाती है।
माता-पिता खुद उदाहरण बनें
शिक्षा केवल शब्दों से नहीं, आचरण से दी जाती है। अगर हम चाहते हैं कि हमारे बच्चे अपने भाई-बहन से जीवनभर जुड़ाव बनाए रखें, तो हमें भी अपने भाई-बहन के साथ अपना रिश्ता सहेजना होगा। एक पिता यदि अपनी बहन को केवल औपचारिक रूप से याद करते हैं या मां ही उस रिश्ते को दबाकर रखती हैं, तो बेटा-बेटी भी वैसा ही व्यवहार अपनाते हैं। इस बदलाव को लाने के लिए माता पिता स्वयं सकारात्मक उदाहरण बनें।
माता-पिता को चाहिए कि वे अपने भाई-बहनों के साथ संबंध को बच्चों के सामने खुलकर निभाएं। संबंधों में सहजता दोनों तरफ से होगी तो इस त्योहार या मेल-जोल को पैसे और गिफ्ट्स के तराजू में नहीं तौला जाएगा। बुआ ‘होलिका’ नहीं है, बल्कि परिवार है। अगर हम रिश्तों को निभाना सीखें, तो बच्चों को सिखाना आसान हो जाएगा। माता-पिता को इसे पहले व्यवहार में उतारना होगा, तभी अगली पीढ़ी सीखेगी कि सच्चा रक्षाबंधन हर दिन मनाया जा सकता है – केवल राखी के धागे से नहीं, बल्कि अपनत्व के बंधन से और इसकी खुशबू बनाए रखने के लिए उपयुक्त अवसरों को जन्म देना होगा।
बदल रही है बुआ
वैसे अब समय कुछ-कुछ बदल रहा है। नई पीढ़ी की बहनें और बुआएं भावनात्मक रूप से जुड़ी हुई, अपने भाई और भतीजे-भतीजियों के जीवन में सक्रिय भागीदारी निभाने वाली हैं। बुआ अब बच्चों के साथ उनके प्रोजेक्ट्स, सलाह, कहानियों और अनुभवों में सहभागी बन रही है। वहीं भाभियां भी खुले दिल से संबंध बनाने और निभाने में कहीं पीछे नहीं हैं बल्कि एकदूसरे का संबल बन रहीं हैं, साथ रील-मीम्स साझा करने वाली बन रही हैं।
बुआ बच्चों के जीवन में दूसरा मातृत्व ला सकती है। उनका अनुभव, स्नेह और मार्गदर्शन बच्चों के लिए अनमोल होता है।
जब बच्चों के सामने सभी पारिवारिक रिश्ते सम्मान से निभाए जाते हैं, तो वे भी भावनात्मक रूप से संतुलित होते हैं।
बच्चों को यह समझना जरूरी है कि हर रिश्ता बराबर है- चाहे वह मामा हो, बुआ हो, चाचा हो या मौसी।
बच्चों को बुआ और मामी और उनके बच्चों के साथ साझा अनुभव दें जैसे छुट्टियां बिताना, उनकी कहानियां सुनना, त्योहार साथ मनाना – ये अनुभव बच्चों के मन में रिश्तों के प्रति सकारात्मकता भरते हैं।