विश्व में सबसे पहले बना था इस भगवान का मंदिर यही से शुरू हुई थी पूजा

जनता से रिश्ता वेबडेस्क। शास्त्रों से जो संकेत मिलते हैं, उनके अनुसार विश्व में पहला मंदिर राजा परीक्षित के पुत्र राजा जनमेजय के समय निर्मित हुआ था। यह श्रीकृष्ण का मंदिर था। मंदिर की अवधारणा ठोस चिंतन के आधार पर बनी थी। जनमेजय अर्जुन के प्रपौत्र और अभिमन्यु के पौत्र थे। वे श्रीकृष्ण के उपासक थे। श्रीकृष्ण के स्वधाम गमन के बाद कृष्णद्वैपायन (वेदव्यास) ने सारे तथ्यों का चिंतन करने के बाद घोषणा की कि श्रीकृष्ण ईश्वर थे। वे विष्णु के अवतार थे।

श्रीकृष्ण की सारी लीलाएं जनमेजय को आंदोलित करती थीं। विशेषकर द्रौपदी के संदर्भ की घटना। दु:शासन ने द्रौपदी का चीरहरण करना चाहा था, तब द्रौपदी के स्मरण करने पर श्रीकृष्ण ने अपने दैविक-प्रभाव से द्रौपदी का चीरहरण नहीं होने दिया। दु:शासन साड़ी खींचता रह गया, पर द्रौपदी निर्वस्त्र न हो सकी।

जनमेजय सोचते थे कि क्या उनके स्मरण करने से भी श्रीकृष्ण की अनुकंपा मिल सकेगी? वे श्रीकृष्ण की उपासना का कोई अच्छा तरीका खोज रहे थे। यह उपाय ऋषियों ने खोजा। ऋषियों ने चिंतन करके पाया कि ऋषि जहां भी तपस्या करते हैं, स्तुति करते हैं, ईश्वर प्रकट हो जाते हैं। अत: ईश्वर का स्थान सर्वत्र है। किसी भी स्थान पर उनकी आराधना की जा सकती है। इस विचार ने मंदिर की अवधारणा को जन्म दिया।

सबसे पहले बना श्रीकृष्ण मंदिर

किसी भी साफ-सुथरे-पवित्र स्थान को स्थायी आराधना का स्थल बनाने की बात उठी। अच्छे स्थान का चयन किया गया। वहां एक भव्य भवन बनाया गया। इसमें श्रीकृष्ण की प्रतीकात्मक प्रतिमा स्थापित की गई। प्रतिमा स्थापित करने के पीछे उद्देश्य यह था कि ईश्वर को अपने सामने साक्षात् मानकर उनका सामीप्य अनुभव करते हुए उनकी आराधना करने से यह सामीप्य यथार्थ में बदल जाएगा। ऐसा ही होने लगा।

शुरू हुई मंदिर निर्माण की परंपरा 

राजा जनमेजय को मंदिर में नित्य पूजा-अर्चना करने से श्रीकृष्ण की अनुभूति और संतुष्टि प्राप्त हुई। इस अवधारणा के सफल होने के बाद मंदिर निर्माण की परंपरा शुरू हो गई। यह गृहस्थों के लिए वरदान था। गृहस्थ ऋषियों की तरह वन में जाकर ‘एकाग्रचित-उपासना’ नहीं कर सकते थे। उन्हें इसका विकल्प मिल गया। अब वे भी गृहस्थ रहते हुए बिना वन में गए उपासना कर सकते थे। यह विलक्षण आविष्कार था मंदिर शब्द वास्तव में ‘मनथिर’ था। जहां मन थिर हो सके। थिर शब्द बाद में ‘स्थिर’ हो गया। मन की स्थिर अवस्था ही ईश्वर से संयुक्त करती है।

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