लाल बत्ती: खासम-खास संस्कृति की विदाई
केंद्र सरकार ने खासम-खास लोगों की कारों पर से लाल बत्तियां हटाने का जो फैसला किया है, वह बस एक शुरुआत भर है। लेकिन यह शुरुआत भी स्वागत योग्य है, क्योंकि हजारों मील की यात्रा करनेवाला भी पहले तो एक ही कदम उठाता है। यह काम पिछली कांग्रेस सरकार भी कर सकती थी, खासतौर से २०१३ में सर्वोच्च न्यायालय के हस्तक्षेप के बाद! उस समय सर्वोच्च न्यायालय ने कारों पर लाल बत्ती लगाने की कड़ी आलोचना की थी और कहा था कि लाल बत्तियां सिर्फ संवैधानिक पदों पर बैठे लोगों को ही दी जाएं।
भाजपा सरकार के फैसले के कारण अब न तो राष्ट्रपति, न प्रधानमंत्री, न मुख्य न्यायाधीश, न मुख्यमंत्री, न राज्यपाल, न मंत्री लोग, न सेनापति और न ही कोई नौकरशाह अपनी कार पर लाल बत्ती लगा सकेगा। इस समय लाल बत्तियों का हाल यह है कि पंजाब के कुछ शहरों में वे ५००-५०० रु. में मिल रही हैं। जो चाहे, सो उन्हें खरीदकर अपनी कार की छत पर सजवा सकता है।
कोई उन्हें पूछनेवाला नहीं है। कोई वैâसे पूछेगा? कार पर लाल बत्ती जो है। किसी को भी डराने, रोब झाड़ने, कानून को धता बताने के लिए लाल बत्ती काफी होती है। वह आपके खासम-खास (वीआईपी) होने का प्रमाण है। वह कुर्सी पर बैठे नेताओं और अफसरों के अहंकार की मालिश करती है। नरेंद्र मोदी की सरकार इस मालिश को बिदा कर रही है, यह खुद उसके लिए तो फायदेमंद है ही, आम जनता भी इससे राहत महसूस करेगी। लाल बत्तियां १ मई से हटेंगी लेकिन ज्यादातर भाजपाई मंत्रियों ने उन्हें अभी से हटाना शुरु कर दिया है।
यह सत्ताधीशों के अंहकार का स्वौqच्छक विसर्जन है।
लेकिन यह काफी नहीं है। मोदी ने कहा है कि भारत का हर नागरिक खासम-खास है। क्या मंत्रियों की कारों पर से लाल बत्तियां हट जाएंगी तो भारत का आम नागरिक याने शासित और शासक, दोनों एक बराबर हो जाएंगे? क्या दोनों खासम-खास हो जाएंगे? बिल्कुल नहीं। भारत के सौ करोड़ से ज्यादा लोग तो कारों में चल ही नहीं सकते। उन्हें पता ही नहीं कि कार में बैठना क्या होता है?
लाल या नीली बत्ती तो बहुत आगे की बात है लेकिन मोदी अगर चाहते हैं कि भारत का हर नागरिक यह महसूस करे कि वह खासम-खास है तो उन्हें अभी बहुत कुछ करना होगा। लाल बत्तियों से आम आदमी को न तो कोई कष्ट था, न उसे कोई जलन होती थी और न ही उनके कारण वह अपने आप को घटिया समझता था। यह तो पैसेवाले और सत्तावालों के बीच की खींचातानी थी। जो लोग मंहगी से मंहगी कारें खरीदकर भी उन पर लाल बत्ती नहीं लगा पाते थे, इस कदम से उनकी आत्मा को काफी ठंडक मिलेगी।
भारत के हर नागरिक को यह एहसास कराने के लिए कि वह खासम-खास है, मोदी को अपने उस अद्भुत कथन को फिर याद करना चाहिए कि `मैं भारत का प्रधान-सेवक हूं।’ भारत लोकतंत्र है, राजतंत्र नहीं लेकिन कौन नहीं जानता कि कुर्सी में बैठते ही हमारे नेताओं का दिमाग आसमान पर चढ़ जाता है। उनका बर्ताव राजा-महाराजाओं- जैसा हो जाता है। उनका रहन-सहन, तौर-तरीका, बोल चाल– सब कुछ बदल जाता है। वे अंग्रेज बहादुर की नकल करने लगते हैं। वे राजा-महाराजाओं को भी पीछे छोड़ देते हैं। आम जनता उनसे डरने लगती है।
आम नागरिक स्वयं को शासित और मंत्रियों, सांसदों और विधायकों को अपना शासक समझने लगता है। शासन चला रहे नेता इतने मगरुर हो जाते हैं कि वे आम नागरिकों की तो क्या, अपनी पार्टी के ही महत्वपूर्ण लोगों की बात भी नहीं सुनते। ये बात दूसरी है कि चुनाव के दौरान वे गरीब से गरीब और कमजोर से कमजोर आदमी के सामने भी गिड़गिड़ाने से बाज नहीं आते। ज्यों ही चुनाव जीतकर वे कुर्सी पर बैठते हैं, अपने आप को खासम-खास बनाने के लिए वे तरह-तरह के पैंतरे अपनाने लगते हैं। लाल बत्ती तो एक ऊपरी और दिखावटी पैंतरा है।
जरा आप दिल्ली आकर देखें तो आपको पता चले कि हमारे `सेवकों’ और `प्रधान सेवकों’ ने अपने रहने के लिए वैâसे-वैâसे आलीशान और लंबे-चैड़े भवनों पर कब्जा कर रखा है। जवाहरलाल नेहरु ने जिस औपनिवेशिक परंपरा को कायम किया था, वह आज भी जस-की-तस कायम है। मंत्रियों और सांसदों के घरों को चमकाने पर करोड़ों रु. खर्च होता है। उनमें वे साल के कितने दिन रहते हैं? वे अमेरिकी सांसदों की तरह किराए के गैर-सरकारी मकानों में क्यों नहीं रहते? नेताओं के इन मकानों को किराये पर चढ़ा दिया जाए तो हर साल अरबों रु. राजकोष में जमा हो जाए। सम्पर्क मकानों और उनके भत्तों और पेंशन की ही बात नहीं है, हर जगह उन्होंने ऐसी जुगत भिड़ा रखी है कि वे खासम-खास दिखें और उन्हें अपनी जेब ढीली न करनी पड़े।
संसद के कैंटीन में खाने की चीजें इतनी सस्ती हैं कि फुटपाथ पर बिकनेवाला खाना उनसे चौगुना-पांच गुना मंहगा लगेगा। हवाई जहाज और रेल की मुफ्त यात्राएं तो हैं ही, उनमें भी पैसे देकर यात्रा करनेवालों के मुकाबले ये मुफ्त यात्री शहंशाह हैं। वे अपनी हेकड़ी जमाने से भी बा़ज नहीं आते। उनके लिए विशेष प्रतीक्षालय, विशेष सीटें, बस्ता ढोने के लिए विशेष सहायक, उनकी कार के लिए विशेष पाा\कग! पता नहीं, क्या-क्या विशेष उनके लिए जुटा दिया जाता है। उन्हें हम कभी किसी लाइन में लगा नहीं देखते।
यहां तक कि मंदिरों में भी इन खासम-खास लोगों के लिए कुछ ऐसी व्यवस्था होती है कि लगता है कि ये भगवान के नहीं, भगवान इनके दर्शनों को लालायित हैं। क्या भारत में भी हम कभी वह दिन देखेंगे कि जैसे स्विट्ज़लैंड के राष्ट्रपति बसों में यात्रा करते हैं, हमारे नेता भी साधारण लोगों की तरह यात्रा करेंगे? इन खासम-खास लोगों ने कुछ ऐसा जुगाड़ कर लिया है कि टोल-टैक्स के नाकों,स्कूलों , अस्पतालों, यहां तक कि अदालतों में भी इनकी हैसियत खासम-खास बनी रहती है।
इनकी इस खासम-खास हैसियत को चार चांद लगा देती है, इनकी बेशुमार आमदनी! सत्ता (कुर्सी) और पत्ता (नोट) का नशा इन्हें प्रधान सेवक से प्रधान मालिक बना देता है।
इन्हें जनता का वास्तविक सेवक बनाने के लिए कई क्रांतिकारी कदम उठाने पड़ेंगे। अपनी व्यवस्था में से ही बहुत-से खासम-खास तत्व निकाल बाहर करने होंगे। जैसे रेलों और जहाजों में सिर्फ एक ही श्रेणी रखनी होगी।
सरकारी अस्पतालों में सारे मरीजों के लिए एकरुप इंतजाम रखना होगा। बड़े नेताओं को अपने आदर्श आचरण का उदाहरण उपस्तिथ करना होगा। जैसे कि गांधीजी हमेशा तीसरे दर्जें में यात्रा करते थे। यदि सभी नेताओं और उनके परिजनों का इलाज सरकारी अस्पतालों में अनिवार्य रुप से हो और उनके बच्चों की पढ़ाई भी सरकारी स्कूलों में अनिवार्य रुप से हो तो देश के स्वास्थ्य और शिक्षा में न केवल अपूर्व सुधार होगा, अपितु देश में चल रही औपनिवेशिक खासम-खास संस्कृति पर भी लगाम लगेगी।