रिश्तों को मजबूत बनाती है शेयरिंग की भावना

दो बच्चे और दोनों के लिए एक जैसा सामान लेकिन अलग-अलग। छोटा भाई तैयार नहीं बड़े भाई या बहन का इस्तेमाल किया हुआ सामान लेने के लिए और जिद है सब कुछ नया दिलाने की। समृद्धि कितनी भी हो मगर जरूरी है भाई-बहनों में साझेदारी की आदत ताकि भविष्य में भी बना रहे यह मिल-बांटकर रहने का सबक। सलाह दे रही हैं पैरेंटिंग कोच व लेखिका डॉ. मोना गुजराल
दो बच्चों के पिता सचिन आज जब छोटे बेटे के लिए नया बैग लेकर आए तो अपने बचपन को याद करने लगे। कैसे उनकी मां बड़े भाई की यूनिफार्म और किताबें संभालकर रखती थीं, ताकि सचिन के काम आ सके। सचिन भी इसी इंतजार में रहते थे कि कब भाई की लंबाई बढ़े और उनकी जींस पहनकर सचिन दोस्तों के बीच इतराएं। आज समृद्धि के नाम पर दोनों बच्चों के लिए हर चीज अलग-अलग आती है।
जबकि एक समय था जब दो भाई अगर साथ खाना खा रहे होते थे तो मां एक गर्म रोटी के दो टुकड़े करके दोनों भाइयों की थाली में रख देती थीं, साथ ही यह भी बोल देती थीं कि जिसकी रोटी पहले खत्म हो वह दूसरे से मांग ले। कितनी छोटी बात मगर कितना जरूरी सबक। साझा करके खाना, एक-दूसरे की चीजों को इस्तेमाल करने में न कोई झिझक और न ही किसी तरह का अधिकार जमाने की आदत। इसका परिणाम है कि आज भी उनके भाई को स्वयं से पहले सचिन की चिंता रहती है। दूसरी तरफ आज बच्चों को हर चीज अपनी-अपनी चाहिए। यह हर घर की कहानी है।
अपनी पहचान बनाने की जिद
जैसे-जैसे हम बड़े होते हैं, हमें अपनी चीजों को लेकर लगाव और निजता महसूस होने लगती है। कई बार होता है कि घर के बड़े बच्चे ही अपने छोटे भाई या बहन को अपने खिलौनों, स्टेशनरी या कपड़ों को साझा करने से मना करने लगते हैं। छोटे बच्चों में भी यह आदत विकसित हो जाती है कि वे बड़े भाई-बहन की ही चीजों को मना कर देते हैं कि उन्हें दीदी या भैया की साइकिल, स्टेशनरी, पुरानी बोतल या बैग नहीं चाहिए। इसकी एक वजह होती है कि वे अपनी पहचान बनाना चाहते हैं, उन्हें कुछ ऐसा चाहिए जो सिर्फ उनका हो। फिर भले ही वो एक खिलौना ही क्यों न हो। पुरानी चीजों में उन्हें विरासत नहीं बल्कि उतरन का भाव ज्यादा आता है।
पेरेंट्स भी बो देते हैं यह बीज
बच्चे अपने आस-पास की चीजों से ही सीखते हैं। इसमें सबसे पहला पाठ देने वाले माता-पिता ही होते हैं। ‘ये मोबाइल मेरा है’, ‘मेरी कार से कोई और नहीं जाएगा’, ‘मुझे भाभी की नहीं, अपनी नई साड़ी ही पहननी है’ जैसे कई वाक्य आप रोजमर्रा में जरूर इस्तेमाल करते होंगे। इस तरह के वाक्य बच्चों के दिमाग में बैठते जाते हैं और वे साझा करने से ज्यादा अपने आप को महत्व देने लगते हैं। ऐसे में यह जरूरी है कि आप स्वयं अपनी बातों को लेकर सतर्क रहें और बच्चों के मन में ऐसे कोई भी बीज न रोपित करें, जो आगे जाकर रिश्तों में दूरियों की दीवार खड़ी कर दें।
ऐसे संभालें स्थिति
उदाहरण के लिए यदि बच्चा पुरानी चीज लेने से मना करे तो नाराज होने की जगह उन्हें समझाएं कि यह सिर्फ एक बैग ही तो है। हम इसको कुछ क्रिएटिव तरीके से सजाकर इसे अलग व उनके लिए विशिष्ट बना सकते हैं। यह उन्हें एक अलग अप्रोच देगा। बच्चे की पसंद के स्टिकर लगाकर आप उस पुरानी चीज को कस्टमाइज कर सकते हैं। उन्हें बता सकते हैं कि इसी कंपास बाक्स का इस्तेमाल करके उनके बड़े भाई ने मैथ्स में अच्छे अंक हासिल किए थे।
उन्हें बताएं कि उन्हें कोई पुरानी चीज नहीं दी जा रही, बल्कि इस तरह उन्हें परिवार की परंपरा में शामिल किया जा रहा है, जहां अपनी पसंद की चीजों को छोटे भाई या बहन को दिया जाता है। शुरू-शुरू में भले ही वे मना करेंगे मगर जब वे देखेंगे कि इसमें कोई बुराई नहीं तो जाहिर तौर पर वे इसे स्वीकार कर लेंगे। हालांकि यहां आपकी जिम्मेदारी है कि यह इस्तेमाल की हुई चीजें सिर्फ छोटे भाई-बहन को ही मिलें!
बच्चों को कहें कि उनकी जरूरत का सामान जैसे कापी, जूते वगैरह तो उन्हें अपने ही मिलेंगे, मगर जो चीजें रीयूज हो सकती हैं, उसके लिए उन्हें चीजें आपस में साझा करनी ही होंगी।
इसे भाई-बहनों के बीच की सालाना परंपरा बनाएं। उन्हें समझाएं कि वे अपने सामान की अच्छे से देखभाल करें।
यह पैसे बचाने या खर्च कम करने की बात नहीं, यह भाई-बहनों के बीच बेहतर बांडिंग बनाने और भावनात्मक तौरपर जुड़ाव बनाने का भी शानदार तरीका है।
जब भी सामान छोटे या बड़े भाई के साथ साझा करें तो सुंदर तरीके से रैप करके प्यारा सा संदेश लिखवाएं। इसे उपहार के तौर पर साझा करें, एडजस्टमेंट की तरह नहीं।
यह परिवार के बीच परंपरा को साझा करने की प्रथा होगी। यहां भी संतुलन बनाए रखना जरूरी है। यह भी ध्यान रखें कि इस्तेमाल हुई चीज इस स्थिति में न हो कि वह किसी काम की ही न हो।