शहीद विक्रम बत्रा : ‘या तो मैं लहराते तिरंगे के पीछे आऊंगा, या तिरंगे में लिपटा हुआ आऊंगा..!!!

विक्रम ने स्नातक के बाद सेना में जाने का पूरा मन बना लिया और सीडीएस (सम्मिलित रक्षा सेवा) की भी तैयारी शुरू की। विक्रम को ग्रेजुएशन के बाद हांगकांग में भारी वेतन में मर्चेन्ट नेवी में भी नौकरी मिल रही थी लेकिन सेना में जाने के जज्बे वाले विक्रम ने इस नौकरी को ठुकरा दिया। विक्रम को 1997 को जम्मू के सोपोर में सेना की 13 जम्मू-कश्मीर राइफल्स में लेफ्टिनेंट के पद पर नियुक्ति मिली। 1999 में कारगिल की जंग में विक्रम को भी बुलाया गया।
इस दौरान विक्रम के अदम्य साहस के कारण उन्हे प्रमोशन भी मिला और वे कैप्टन बना दिए गए। श्रीनगर-लेह मार्ग के ठीक ऊपर सबसे महत्त्वपूर्ण 5140 चोटी को पाक सेना से मुक्त करवाने का जिम्मा भी कैप्टन विक्रम बत्रा को दिया गया था। बेहद दुर्गम क्षेत्र होने के बावजूद विक्रम बत्रा ने अपने साथियों के साथ 20 जून 1999 को इस पोस्ट पर विजय हासिल की। इसके बाद सेना ने प्वाइंट 4875 पर कब्जा करने की कवायद शुरू की थी। फिर इसका भी जिम्मा कैप्टन विक्रम बत्रा को ही दिया गया था।
शहादत को दो दशक बीत गए पर अब भी उनके दोस्त उनका जिक्र सुनते ही यह जुमले दोहराते हैं ‘या तो मैं लहराते तिरंगे के पीछे आऊंगा, या तिरंगे में लिपटा हुआ आऊंगा, पर मैं आऊंगा जरूर’, ‘ये दिल मांगे मोर’। गिरधारी लाल बत्रा ने बतााया था कि विक्रम की बात एकदम अलग थी। आर्मी से पहले मर्चेंट नेवी में नौकरी मिली पर ठुकरा दी। मां से बोला, मम्मी मुझको देश के लिए कुछ करना है। विक्रम नेताजी सुभाष चंद्र बोस और चंद्रशेखर आजाद से प्रभावित थे। यह थी हमारे हीरो कैप्टन विक्रम बत्रा की शहादत की गाथा।

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