मरने से पहले कर्ण ने मांगे थे श्रीकृष्ण से ये 3 वरदान, जिसे सुनकर Confuse हो जायेंगे आप

महाभारत के पात्रों में कुछ पात्र ऐसे हैं जो सदियों से चर्चा का विषय रहे हैं। श्रीकृष्ण के अलावा पाण्डव महाभारत के मुख्य नायकों के रूप में जाने जाते हैं। लेकिन कौरवों का साथ देने के बावजूद दानवीर कर्ण को आदर भाव के साथ देखा जाता है। 

उनके साथ हुए अन्याय के कारण अधिकतर लोग उनके प्रति सहानुभूति के भाव रखते हैं। लेकिन क्या आप जानते हैं कि श्रीकृष्ण भी उनके सिद्धांतो और नैतिक मूल्यों के कारण उन्हें वीर योद्धा मानते थे। भगवान श्रीकृष्ण के मन में भी कर्ण के प्रति आदर भाव था। महाभारत महाकाव्य से जुड़ी कई कहानियां हमेशा से सभी के लिए जिज्ञासा का विषय रही है।

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ऐसी ही एक रोचक कथा के अनुसार श्रीकृष्ण ने अर्जुन के प्राण बचाने के लिए इंद्र के साथ मिलकर छल से कर्ण का कवच और दिव्य कुंडल ले लिए थे। लेकिन इसके बाद भी श्रीकृष्ण कर्ण की परीक्षा लेने के लिए आए थे। जिस परीक्षा में कर्ण सफल हुए थे। तब श्रीकृष्ण ने कर्ण  से प्रभावित होकर वरदान मांगने को कहा था। आइए हम आपको बताते हैं श्रीकृष्ण और कर्ण  से जुड़ी हुई कहानी। जब कर्ण मृत्युशैया पर थे तब कृष्ण उनके पास उनके दानवीर होने की परीक्षा लेने के लिए आए। कर्ण ने कृष्ण को कहा कि उसके पास देने के लिए कुछ भी नहीं है। ऐसे में कृष्ण ने उनसे उनका सोने का दांत मांग लिया।

कर्ण ने अपने समीप पड़े पत्थर को उठाया और उससे अपना दांत तोड़कर कृष्ण को दे दिया। कर्ण ने एक बार फिर अपने दानवीर होने का प्रमाण दिया जिससे कृष्ण काफी प्रभावित हुए। कृष्ण ने कर्ण से कहा कि वह उनसे कोई भी वरदान मांग़ सकते हैं। कर्ण ने कृष्ण से कहा कि एक निर्धन सूत पुत्र होने की वजह से उनके साथ बहुत छल हुए हैं। अगली बार जब कृष्ण धरती पर आएं तो वह पिछड़े वर्ग के लोगों के जीवन को सुधारने के लिए प्रयत्न करें। इसके साथ कर्ण ने दो और वरदान मांगे।

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दूसरे वरदान के रूप में कर्ण ने यह मांगा कि अगले जन्म में कृष्ण उन्हीं के राज्य में जन्म लें और तीसरे वरदान में उन्होंने कृष्ण से कहा कि उनका अंतिम संस्कार ऐसे स्थान पर होना चाहिए जहां कोई पाप ना हो। उनकी इस इच्छा को सुनकर कृष्ण दुविधा में पड़ गए थे क्योंकि पूरी पृथ्वी पर ऐसा कोई स्थान नहीं था, जहां एक भी पाप नहीं हुआ हो। ऐसी कोई जगह न होने के कारण कृष्ण ने कर्ण का अंतिम संस्कार अपने ही हाथों पर किया। इस तरह दानवीर कर्ण मृत्यु के पश्चात साक्षात वैकुण्ठ धाम को प्राप्त हुए।

 

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