भारत-अमेरिका के बीच दोस्ती या मजबूरी, ट्रंप क्‍यों लागू नहीं कर पा रहे अपनी नीतियां?

अपने दूसरे कार्यकाल में राष्ट्रपति ट्रंप अमेरिकी विदेश नीति में काफी बड़े बदलाव कर रहे हैं। पिछले कुछ दशकों से भारत-अमेरिका संबंध बेहतर हो रहे हैं। भारत के साथ रिश्तों को बेहतर बनाना खुद अमेरिका के हित में है और यह अमेरिकी प्रशासन की जिम्मेदारी है कि वह भारतीय विदेश नीति की अनदेखी ना करे।

विदेश नीति के जानकार और जेएनयू के असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ. अभिषेक श्रीवास्तव का कहना है कि अमेरिका आंतरिक संकटों से गुजर रहा है तथा अपने दूसरे कार्यकाल में राष्ट्रपति ट्रंप अपनी कई नीतियों को लागू कराने में असमर्थ दिख रहे हैं। वैश्विक मुद्दों पर देशों के बीच मूल्य आधारित सहयोग को सीमित करना या उसे कमजोर करना अमेरिकी नेतृत्व पर प्रश्नचिन्ह लगा रहा है।

हालांकि, यह कहना कि अमेरिका भारत के हितों को नजरअंदाज करके द्विपक्षीय रिश्तों को आगे बढ़ाना चाहता है, यह जल्दबाजी होगी । कुछ मामलों में, अमेरिका भारत के साथ अपने हितों को आगे बढ़ाने के लिए भारत के साथ रणनीतिक साझेदारी पर जोर दे सकता है, लेकिन यह हमेशा भारत के हितों के साथ पूरी तरह से मेल नहीं खा सकता है।

उदाहरण के लिए, अमेरिका भारत के साथ सुरक्षा सहयोग को बढ़ावा देने के लिए, चीन का मुकाबला करने के लिए एक मजबूत साझेदारी चाहता है, लेकिन यह भारत के लिए अपनी सुरक्षा एवं रणनीतिक हितों के लिहाज से भी आवश्यक है।

पाकिस्तान को कब मिला था गैर-नाटो सहयोगी का दर्जा?

 डॉ. अभिषेक श्रीवास्तव के मुताबिक, ऐतिहासिक रूप से देंखे तो शीत-युद्ध के दौरान सोवियत संघ के खिलाफ इस क्षेत्र में पाकिस्तान अमेरिका का सहयोगी था। 1987 में अमेरिका ने पाकिस्तान को गैर-नाटो सहयोगी का दर्जा दिया था, जो आज भी जारी है। आतंकवाद के खिलाफ युद्ध में पाकिस्तान को गैर-नाटो सहयोगी का दर्जा प्राप्त होना तथा तुर्की जैसे देशों का नाटो का सदस्य होना वैश्विक आतंकवाद के खिलाफ अमेरिकी नीति पर प्रश्नचिन्ह लगाता है।  

अमेरिका-भारत के संबंध

डॉ. अभिषेक श्रीवास्तव ने बताया कि शीत युद्ध के बाद के युग में भारत और संयुक्त राज्य अमेरिका के संबंधों में एक नए अध्याय की शुरुआत हुई है। दोनों देशों के रिश्ते अलगाव से जुड़ाव में बदल गए। इस बदलाव के पीछे कई राजनीतिक, आर्थिक और रणनीतिक कारक थे। शीत युद्ध की समाप्ति के बाद अमेरिका ने दक्षिण एशियाई क्षेत्र के प्रति अपनी नीतियों को नया आकार दिया है।

अमेरिका ने भारत के साथ एक समावेशी आर्थिक, सैन्य और राजनीतिक साझेदारी विकसित की, और हिन्द-प्रशांत क्षेत्र में चीन के आक्रामक विस्तारवादी नीतियों ने दोनों दोनों देशों के बीच संबंधों को नई ऊंचाइयों पर पहुंचाया है।

भारत और अमेरिका अब हिंद महासागर क्षेत्र में स्थिरता और एशिया में पर्याप्त शक्ति संतुलन बनाए रखने में साझा हित रखते हैं। आने वाले वर्षों में वैश्विक राजनीति हिंद महासागर से तय होगी। अंतरराष्ट्रीय राजनीति यथार्थवाद से ज्यादा प्रभावित होती है। ऐसे में लोकतंत्र, स्वतंत्रता, बहुलवाद और विविधता जैसे हमारे साझा मूल्य पर्याप्त नही होते, कई बार विरोधाभासी हो सकते हैं।

राष्ट्रीय हित कई कारकों पर निर्भर करता है जिसमे समय-समय पर बदलाव होते रहते हैं। यदि सिर्फ मूल्य आधारित रिश्ते अहमियत रखते तो दोनों देश वर्षों पहले ही गठबंधन बना लेते या साझेदार हो गए होते। इतिहास हमें सिखाता है कि रिश्तों के विकास के लिए ये मूल्य न तो आवश्यक हैं और न ही पर्याप्त हैं, बल्कि राष्ट्रीय हित सर्वोपरि होते हैं।


वैश्विक राजनीति में भारत के बढ़ते प्रभाव को नजरअंदाज करना या अंतरराष्ट्रीय आतंकवादी खतरों पर एक स्वर में जवाब ना देना दोनों देशों के बीच आपसी सहयोग को नुकसान पहुंचा सकता है। पहलगाम आतंकी हमले के बाद अमेरिका की पाकिस्तान-नीति उसके ‘ग्लोबल वार ऑन टेरर’ की भावना के विपरीत दिखती है। अमेरिका अपने हितों के लिए अवसरवाद को अपनाता रहता है।

भारत के लिए यह भी महत्वपूर्ण है कि अपने हितों को आगे बढ़ाने के लिए अमेरिका के साथ-साथ अन्य देशों के साथ भी एक मजबूत साझेदारी बनाए। भारत की स्वतंत्र तथा स्वायत्त विदेश नीति पर निर्भर है कि वह अमेरिका के साथ अपनी साझेदारी को कैसे आगे बढ़ाए। भारत को अमेरिका के साथ अपनी साझेदारी के फायदे और नुकसान दोनों पर विचार करने की आवश्यकता है। इसके आधार पर आगे का रास्ता तय करना होगा।

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