बहुत अरसे बाद सिनेमा में मुस्लिम लड़का-हिंदू लड़की का रोमांस
सुशांत सिंह राजपूत और सारा अली खान की बहुप्रतीक्षित फिल्म “केदारनाथ” रिलीज से पहले ही चर्चाओं में है. निर्माण के दौरान हुए आपसी विवाद की वजह से फिल्म की रिलीज टलती रही. कहा गया कि ये फिल्म 2019 में ही रिलीज हो पाएगी. लेकिन पिछले दिनों फिल्म का टीजर जारी हुआ और अब चर्चा है कि फिल्म दिसंबर में रिलीज हो जाएगी. फिल्म की कहानी 2013 में उत्तराखंड की प्राकृतिक आपदा पर आधारित है, जिसमें धार्मिक यात्रा पर गए श्रद्धालुओं को बड़े पैमाने पर जान गंवानी पड़ी.
अभिषेक कपूर के निर्देशन में बनी फिल्म का निर्माण रॉनी स्क्रूवाला के प्रोडक्शन ने किया है. इस फिल्म की चर्चा की तीन वजहें बहुत खास हैं.
पहला, लीड एक्ट्रेस के तौर पर सारा अली खान की कास्टिंग. सारा, सैफ अली खान और उनकी पहली पत्नी अमृता सिंह की बेटी हैं. सारा के डेब्यू फिल्म होने की वजह से इस पर चर्चा शुरू हुई. दूसरा, फिल्म के निर्माता और निर्देशक के बीच वित्तीय विवाद सामने आए, विवाद इतना बढ़ा कि यह कोर्ट तक पहुंच गया और कहा गया कि विवादों में पड़ने से फिल्म का नुकसान होगा. इसकी रिलीज डेट को लेकर भी मुश्किलें नजर आने लगी. तीसरी और सबसे बड़ी वजह है उत्तराखंड की महा प्राकृतिक आपदा. एक ऐसी आपदा जिसमें विभिन्न, क्षेत्र, जाति और समाज से गए श्रद्धालुओं के सैकड़ों परिवार प्रकृति के कोप का शिकार हुए. उन्हें अपनी जान गंवानी पड़ी.
फिल्म का टीजर आने के बाद अब एक और वजह सामने आ रही है जिसकी वजह से इस फिल्म की चर्चा करना जरूरी सा हो गया है. इस फिल्म में भारतीय समाज की उस दुखते जख्म पर हाथ रख दिया गया है, जिसे छूने से अक्सर अवांछित विवादों के मवाद बहने लगते हैं. बहुत अरसे बाद हिंदी की लोकप्रिय सिनेमा की धारा में भारतीय समाज में एक ऐसी प्रेम कहानी को दिखाने का जोखिम उठाया जा रहा है जिसमें हिंदू लड़की (मुक्कू: सारा अली खान) का प्रेम एक मुस्लिम लड़के (मंसूर: सुशांत राजपूत) के साथ है.
लोकप्रिय धारा में हिंदू लड़की और मुस्लिम लड़के में प्रेम को लेकर इस तरह के उदाहरण वाली फ़िल्में बहुत कम रही हैं. जब भी ऐसी प्रेम कहानियां चुनी गईं हैं, हमारा नायक उस खेमे से आता रहा है, जिसका दावा है कि वो भारत का मूल निवासी है. मंदिर आंदोलन के बाद मुंबई में दंगों के बैकड्रॉप पर बनी बॉम्बे हो या भारत पाकिस्तान के बंटवारे की काल्पनिक कहानी पर बनी सनी देओल की गदर. दोनों फिल्मों की नायिकाएं मुस्लिम हैं. बॉम्बे का नायक ब्राह्मण हिंदू जबकि गदर का नायक भारतीय परम्पराओं में चलने वाला सिख.
ये परंपरा भारत में मंदिर आंदोलन के बाद धार्मिक खाई गहराने से पहले और बाद में कायम रही हैं. कुछ समीक्षक यह भी मानते रहे हैं कि निर्माता बहुमत की तुष्टि (सिनेमाघरों तक लाने के लिए) के लिए ही पॉपुलर धारा में हिंदू परिवारों की कहानियों को सिनेमा के पर्दे पर दिखाते रहे हैं. इसी वजह से डेयरिंग सब्जेक्ट्स पर फ़िल्में बनाने के लिए मशहूर मणिरत्नम भी बॉम्बे में जोखिम की ओर नहीं बढ़ें. इश्कजादे से आनंद राय की “रांझणा” तक इस परंपरा में फ़िल्में बनने का एक लंबा सिलसिला और उदाहरण हैं. जिन फिल्मों के उदाहरण दिए हैं उनकी रिलीज के वक्त भी जिस समाज से नायिका आती है, उन लोगों ने फिल्म में नायक नायिकाओं के फिल्मांकन का विरोध किया.
हालांकि पिछले तीन दशक में इक्का दुक्का ऐसी कहानियां भी आई हैं जिनमें हिंदू लड़का और मुस्लिम लड़की से तस्वीर उलट है. अगर याद करेंगे तो एक दशक पहले शाहरुख खान और काजोल की फिल्म “माई नेम इज खान” का उदाहरण मिलेगा. आमिर खान की पीके में भी अनुष्का के अपोजिट एक मुस्लिम किरदार की मौजूदगी नजर आती है. हालांकि ऊपर की दोनों फिल्मों के संदर्भ अलग हैं. माई नेम इज खान में मुस्लिम नायक और हिंदू नायिका का सामाजिक परिवेश पूरी तरह भारतीय नहीं है. वर्ल्ड ट्रेड टावर के बाद उस ऑडियंस से संवाद कर रहा है जो अमेरिका में धार्मिक पहचान या यूं कहें मी नस्लीय पहचान से संघर्ष कर रहा है.
पीके में भी हिंदू लड़की और मुस्लिम लड़के के बीच प्रेम है, लेकिन ये एक गौड़ संदर्भ है जिसे धार्मिक ढकोसलों का विरोध करने के लिए उपकहानी के तौर पर दिखाया गया है. यही वजह है कि प्रेम कहानी के अलावा सारी चीजें फोकस में हैं. अनुष्का के साथ मुस्लिम किरदार के प्रेम से ज्यादा फोकस दूसरे ग्रह से आए जीव आमिर खान की उसके प्रति भावनाओं को लेकर है.
केदारनाथ में ये जोखिम क्यों?
ऐसा हो भी सकता है और नहीं भी.
इस बात पर बहस होती रही है कि फिल्मों को प्रचारित करने के लिए निर्माताओं की तरफ से ऐसे बिंदु रखे जाते हैं, जिन पर लोग बात करें और विवाद हो. तमाम उदाहरण हैं कि विवादों से गुजरने वाली फिल्मों ने टिकट खिड़की पर बढ़िया प्रदर्शन किया है. इसमें कई ऐसी फ़िल्में भी थीं जिनके कंटेंट में वो बात नहीं थी कि उन्हें बम्पर सफलता मिले. संजय लीला भंसाली की “पद्मावत” के पूरे विवाद में भी यह आरोप सामने आए कि तमाम चीजें जान-बूझकर प्लांड थीं, जो बाद में गले की हड्डी बन गईं.
हो सकता है कि ऐसा हो, लेकिन मौलिकता के लिहाज से देखें तो सच्ची घटना पर आधारित कहानी में नायिका के अपोजिट मुस्लिम चरित्र का होना जरूरी था. पोस्टर और टीजर से जाहिर होता है कि सुशांत का चरित्र मुस्लिम है जो तीर्थस्थल में कूली का काम करता है. यह दिलचस्प तथ्य भी है कि वैष्णो देवी, अमरनाथ या केदारनाथ जैसे तमाम तीर्थस्थलों पर कूली का काम बहुतायत मुस्लिम समाज के लोग ही करते हैं. कहानी के हिसाब से नायक का मुस्लिम ही होना जरूरी था.
तो टाइटैनिक ही है फिल्म का क्लाइमेक्स
घटनाओं और टीजर के आधार पर केदारनाथ में धार्मिक यात्रा पर आई हिंदू लड़की को मुस्लिम कूली पसंद आने लगता है. दोनों का प्रेम परवान चढ़ता है और बाद में प्राकृतिक आपदा के दौरान लड़का चमत्कारिक ढंग से हिंदू लड़की को बचाता है. हालांकि लव जिहाद वाले दौर में इस फिल्म की नायिका भी हिंदू ही रहती है. सब्जेक्ट के मुताबिक यह कह सकते हैं कि फिल्म का क्लाइमेक्स टाइटैनिक की तरह ही होगा. बहुसंख्यक भावनाओं का ज्वार बॉक्स ऑफिस पर कामयाब हो, लड़की हिंदू ही रहे, शायद फिल्म में मुस्लिम नायक को मरना ही पड़ेगा.
प्रेम जेहन में रखने की चीज है.