बनारसी मलाइयो: ओस की बूंद से बनती है यह मिठाई, सिर्फ तीन महीने इसे चखने का मौका


हम जन्म से न सही, मन से बनारसी हैं, मनमौजी हैं, अपनी ही धुन में मगन रहने वाले। मगर हकीकत यह है कि यही अनमोल मौसमी रत्न कई दूसरे शहरों में गुजरे जमाने में लोकप्रिय रहा है। लखनऊ की निमिष, कानपुर की मक्खन तथा दिल्ली की दौलत की चाट मलइयो नहीं तो और क्या है? इतना ही नहीं, पारसी खानपान में इसी चीज को ‘दूधनी पफ’ के नाम से पहचाना जाता है। हमें लखनऊ वाला नाम सबसे माकूल लगता है। निमिष यानी पलक झपकने भर का समय। ज्योतिष गणित की शब्दावली में एक क्षण का आठवां हिस्सा अर्थात् इतनी ही मोहलत मिलती है आपको इस नायाब मिठास का लुत्फ लेने के लिए।
ओस की बूदों में तैयार होने वाली मलइयो आयुर्वेदिक दृष्टि से बहुत ही गुणकारी होती है। ओस की बूंदों में प्राकृतिक मिनरल्स पाए जाते हैं, जो त्वचा को लाभ पहुंचाते हैं।
-मलइयो में इस्तेमाल केसर, बादाम शक्तिवर्द्धक होते हैं। ये शारीरिक ताकत को बढ़ाते हैं। केसर सुंदरता प्रदान करता है। इसके अलावा यह मिठाई नेत्र ज्योति के लिए भी वरदान मानी जाती है।
आधी सदी पहले मिट्टी के कुल्हड़ में क्रमश: झाग जमाकर ग्राहक के सामने पेश किया जाता था। जाड़े की ओस की तासीर से ठंडे दूध का जादू जगता था। बेचने वाले के किस्से कम लच्छेदार नहीं होते थे। हां, यह बात कबूल करनी ही पड़ेगी कि अवधी नवाबों की नजाकत नफासत ने भले ही निमिष को मलइयो से पहले और ज्यादा लोकप्रियता दिला दी हो, मगर मलाई की कारीगरी बनारसियों ने ही लखनऊ को सिखलाई। मलइयो को बनाने का तरीका अन्य मिठाइयों से काफी अलग है।
पहले कच्चे दूध को बड़े-बड़े कड़ाहों में खौलाया जाता है। फिर रात में छत पर खुले आसमान के नीचे रख दिया जाता है। रातभर ओस पड़ने के कारण इसमें झाग पैदा होता है। सुबह कड़ाहे को उतारकर दूध को मथनी से मथा जाता है। फिर इसमें छोटी इलायची, केसर और मेवा डालकर दोबारा मथा जाता है।
बनारस में आज भी मलइयो छोटे-छोटे मिट्टी के कुल्हड़ों में सिर्फ जाड़े के मौसम में मिलती है और वह भी बिना टीम टाम या सोलह शृंगार के। मुख्य बात यहां दूध की गुणवत्ता की और मलाई को धीरज से उतारने की है। विषयांतर से बचने की जरूरत है। मलइयो का नाता मलाई से सिर्फ नाम ध्वनि साम्य तक सीमित है। दूधिया झाग ‘वायवीय’ आध्यात्मिक मोक्ष का पर्याय है।
मलाई दूध-दही के ऊपर जितना जी चाहे इतरा ले, स्थूल भौतिक जगत का सुख है। यह पहेली सुलझाना कठिन नहीं कि कैसे यह पारसियों के हाथ लगी। अनेक पारसी डॉक्टर, वकील आदि तटवर्ती भारत से दूर मर्मस्थल तक पहुंच गए थे अंग्रेजी हुकूमत के विस्तार के साथ। अवध से ही वह यह सौगात अपने साथ ले गए, ऐसा सुझाना तर्कसंगत है। हां, यह सोचने लायक है कि क्यों ब्रजभूमि में दूध, दही और मक्खन की भूमि में यह अदृश्य है। हालांकि, आजकल शादी-ब्याह की दावतों में हर मौसम में ‘दौलत की चाट’ का खोमचा चटोरों की खिदमत के लिए खड़ा नजर आता है।
मॉलीक्यूलर’ रसोई के दौर में यंत्रों की मदद से सर्द झाग पैदा करना कठिन काम नहीं है। मगर आप ही बताइए हाथ से बुनी ढाके की मलमल का कोई मुकाबला मशीन पर बने कपड़े से हो सकता है? वही फर्क है, जो देसी कुल्फी और आइसक्रीम में है।