हल्कू अब भी खेत में काटता है पूस की रात – पढ़ें मुंशी प्रेमचंद की मार्मिक कहानी का तत्कालीन औत्चित्य

लखनऊ. क्षेत्र में पशुपालकों द्वारा बछड़ों को छोड़ दिए जाने से छुट्टा पशुओं की संख्या में तेजी से इजाफा हो रहा है। तेजी से बढ़ रहे आवारा पशुओं, नीलगाय तथा जंगली सुअरों के उत्पात से रबी सहित अन्य फसलों पर संकट गहराने लगा है। काफी संख्या में किसान रबी की फसल की सिंचाई कर खाद का छिड़काव भी कर दिए हैं। ऐसे में पशुओं का झुंड खेेतों में घ़ुसकर फसलों को बर्बाद कर दे रहा है।

फसल नुकसान की चिंता लोगों को खाए जा रही है। भीषण ठंड के मौसम में किसान फसलों की रखवाली कर रहे हैं। लेकिन पशुपालन और कृषि विभाग की तरफ से इस बारे में अभी तक कोई कार्ययोजना नहीं बनाई जा सकी है। इससे करीब 100 वर्ष पहले बीसवीं सदी के प्रारंभ में कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद द्वारा लिखी गई कहानी पूस की एक रात के मुख्य पात्र हल्कू की तरह आज का किसान भी हांड कपाने वाली इस ठंड में अपनी फसलों की रखवाली को मजबूर हैं।

munshi premchand

पूस की एक रात कहानी का मुख्य पात्र गरीब हल्कू पूस की एक रात एक मोटी चादर के सहारे खेत की रखवाली कर रहा है, आग जलाकर तापता है आग से मन व शरीर को सुकून देने वाली गर्माहट इतनी अच्छी लगती है कि वहीं सो जाता है, जंगली पशु लहलहाती फसल चर के खत्म कर देते हैं और वह सोया ही रह जाता है। हल्कू का कुत्ता झबरा रात भर भौंक-भौंक कर पशुओं को भगाने का असफल प्रयास करता है और सुबह तक बेदम हो जाता है। इस कहानी को लिखे मुंशी जी को तकरीबन सौ बरस हो गए।

इन सौ वर्षों में हम धरती से चांद और अंतरिक्ष की यात्रा कर आए। अपने देश में बैठे-बैठे दुश्मन देश को तबाह करने के लिए मिसाइलें बना लीं। मोबाइल फोन और इंटरनेट के जरिए पूरी दुनिया से पल भर में जुड़ जाते हैं। कहने का मतलब यह कि तरक्की की राह में शेष दुनिया के साथ हम चलते ही नहीं हैं बल्कि आगे निकल जा रहें हैं पर इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि हल्कू आज भी है। अब भले सेठ साहुकारों से नहीं सताया जाता है लेकिन कर्ज तो लेता है, बैरन मौसम से हर वर्ष जूझता है।

कभी सूखे की मार सहता है तो कभी ओलावृष्टि की। प्रेमचंद का हल्कू तीन रुपये का कंबल नहीं खरीद सका और साहूकार को सूद चुका दिया। कंबल खरीद लेता तो पूस की रात में जाड़े की मार न सहता, तब शायद उसकी फसल बच जाती और झबरा बेदम न होता। आज का हल्कू बैंक और मौसम की मार झेलता हुआ उन्हीं आवारा पशुओं व नीलगायों से अपनी फसल की रखवाली कर रहा है जिनसे मुंशी जी का हल्कू अपनी फसल नहीं बचा सका था। आज भी हल्कू, खेत में मचान बना कर पशुओं को भगाता है।

कभी उसके साथ झबरा रहता है तो कभी वह टीन का डब्बा बजाता है। छुट्टा पशु, नीलगाय और जंगली सुअर वैसे ही फसलों को तबाह कर रहे हैं जैसे पहले किया करते थे। इन सौ वर्षों में हमने जो भी तरक्की की पर आज के हल्कू के खेत की रखवाली के लिए ऐसा सस्ता उपाय नहीं खोज सके जो उसकी फसल बचाने में सहायक हो। सभी हल्कू न तो बैट्री या बिजली चालित बाड़ लगवा सकते हैं और न ही खेत की तारबंदी ही कर सकते हैं जिससे उनकी फसल बच जाए।

किसान

हमारे इंजीनियर मोटी तनख्वाह पर बड़ी-बड़ी कंपनियों के लिए तरह-तरह के आविष्कार तो करते हैं पर उस वर्ग के लिए आज भी कुछ ऐसा नहीं किया जा सका जो उनको अनाज उपलब्ध कराता है। देश की एक अरब से अधिक आबादी को दो वक्त की रोटी उपलब्ध कराने वाला हल्कू खेत में अब भी पूस की रात काट रहा है, जानवरों द्वारा अपनी फसल रौंदे जाने की पीड़ा सह रहा है पर कर कुछ नहीं पा रहा। जरूरत इस बात की है कि हल्कू का खेत जंगली पशु से बचाने के लिए उसकी क्षमता के अनुरूप तकनीक इजाद की जाए।

खेत के चारो तरफ साड़ी और धोती की बाड़ लगा कर अथवा धोखे का पुतला खड़ा देख कर जानवर अब नहीं भागते हैं। वह कपड़े की बाड़ के नीचे से घुस जाते हैं, पुतले के बगल से खेत में घुस कर पूरी फसल तबाह कर देते हैं। खेती यदि उद्योग का दर्जा पाती तो शायद इस तरफ फायदा देख हल्कू की इस पीड़ा के प्रति सकारात्मक सोच बनती।

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