ऐसा ट्विस्ट जिससे नहीं हो सकता पाकिस्तान अलग-थलग, ये है बड़ी वजह..

उरी हमले में 18 जवानों के शहीद होने के बाद से देशवासियों में काफी गुस्सा है. ऐसे में कई लोग पाकिस्तान के खिलाफ अलग-अलग तरह की कार्रवाई की मांग कर रहे हैं….

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इनमें कुछ पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर में मौजूद आतंकी ठिकानों सहित लाहौर के नजदीक मुरिदके पर सुनियोजित हमले करने की मांग कर रहे हैं. वहीं कुछ लोग सिंधु नदी संधि को भी खत्म करने की बात कर रहे हैं.

इन सबके बावजूद भारत के पास और भी कई विकल्प हैं, जिनमें कूटनीति, आर्थिक और सैन्य विकल्प शामिल हैं. लेकिन इन विकल्पों को 2008 के मुंबई हमलों के बाद आजमाया जा चुका है. जिस विकल्प को नहीं आजमाया गया है, वो है पाक में मौजूद आतंकी संगठनों पर हमले.

लेकिन इस विकल्प का उपयोग करने पर पाक जवाबी हमला भी कर सकता है और इसके दूरगामी परिणाम हो सकते हैं. ऐसे में भारत के पास असल मायने में बहुत कम और सार्थक विकल्प बच जाते हैं.

लेकिन कुछ न करना भी कोई विकल्प नहीं है. पाकिस्तानियों को लगता है कि उनका देश जब चाहे, भारत पर हमला कर सकता है. इसके लिए उन्हें केवल कुछ आतंकियों की जान ही तो गंवानी पड़ती है. लेकिन इसके बदले में वो भारत को जो चोट पहुंचाते हैं, उससे उन्हें बहुत सुकून मिलता है.

वहीं भारत के लोगों में हमलों के बाद पलटवार नहीं कर पाने की अक्षमता उन्हें भीतर तक कचोटती रहती है. लोकसभा चुनावों के दौरान नरेंद्र मोदी ने चुनाव अभियानों में कहा था कि अगर उनकी सरकार बनती है, तो पाक के साथ कड़ाई से निपटा जाएगा. जाहिर है, भारत को कुछ ऐसा करना होगा कि पाक दोबारा ऐसा करने से पहले ठीक से सोचे.

रविवार को कोझिकोड में बीजेपी के सम्मेलन का आयोजन किया गया था. इस सम्मेलन में पीएम मोदी ने पाकिस्तान को आतंक का निर्यात करने वाला देश घोषित कर दुनिया से अलग-थलग करने की धमकी दी है. 2008 में जब मुंबई पर हमले हुए थे, तब भी भारत ने ठीक ऐसा ही किया था, लेकिन कुछ सालों बाद वो दबाव खत्म हो गया था.

ये तो साफ है कि पाकिस्तान अपनी धरती से आतंक को खत्म करने की इच्छा नहीं रखता या फिर वो ऐसा करना नहीं चाहता. ऐसे में उस पर उंगलियां उठाना काफी आसान है.

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लेकिन इस बार नई दिल्ली के लिए इस्लामाबाद को ‘अलग-थलग’ करना ज्यादा कठिन है. इसके पीछे कई वजह हैं. पहला, इस बार पीड़ितों की संख्या मुंबई हमले से काफी कम है. दूसरा, जिन पर हमला हुआ, वो 26/11 हमले की तरह आम नागरिक नहीं, बल्कि सैनिक थे. तीसरा, कई देशों के अपने द्विपक्षीय कारण हैं, जिसकी वजह से वो पाकिस्तान का विरोध नहीं कर सकते.

अफगानिस्तान में अपनी पकड़ मजबूत रखने के लिए अमेरिका को पाकिस्तान का साथ देना पड़ेगा. वहीं चीन के वहां कई सामरिक हित हैं, खासकर 46 अरब डॉलर का आर्थिक कॉरिडोर, जो वो पाकिस्तान के साथ बनाना चाहता है.

ऐसे में जब तक इस तरह के बड़े देश पाकिस्तान के साथ संबंध बनाते हुए उसकी हरकतों को नजरअंदाज करते रहेंगे, तब तक उसको कूटनीतिक रूप से अलग-थलग करना आसान नहीं होगा.

मोदी ने तो इस बात की तरफ इशारा कर दिया कि वो पाकिस्तान को भविष्य में अलग-थलग करने के प्रयास में हैं, लेकिन इसके अपने परिणाम होंगे.
  • पाकिस्तान में जब तक चीन आर्थिक हितों को ध्यान में रखकर निवेश करता रहेगा, तब तक उसे वैश्विक रूप से पृथक करना आसान नहीं होगा.
  • पूरी तैयारी कर हमला करना भी विकल्प नहीं हो सकता, क्योंकि इसके भी अपने परिणाम होंगे.
  • सिंधु नदी संधि को भी भारत खत्म नहीं कर सकता. ऐसा करने से पाकिस्तान पर भारत दबाव बनाने का नैतिक अधिकार खो देगा.
  • पठानकोट हमले के बाद रक्षा मंत्रालय को जो रिपोर्ट सौंपी गई थी, उस पर अभी तक कोई कार्रवाई नहीं की गई है.
 

सुनिश्चित हमले एक अच्छा विकल्प नहीं है

सुनियोजित ढंग से हवाई हमले करना सुनने में एक बहुत ही अच्छा विकल्प लगता है, ये आज के जमाने के प्रेमालाप जैसा है, जिसमें प्रतिबद्धता के बिना संतुष्टि की संभावना होती है. आप एक तय ऊंचाई पर उड़े, कुछ बम गिराए और बिना इस मुद्दे को और बढ़ाए घर वापस आ गए.

लेकिन इन हमलों की एक बहुत ही चिंताजनक आदत होती है, जो कि इनके रचने वालों के हिसाब से नहीं हो पाती. आप इन हमलों में यही करेंगे कि कुछ टेंट और छोटे-मोटे टारगेट को निशाना बनाएंगे, जिन्हें आसानी से दोबारा बनाया जा सकता है. लेकिन अगर इस पूरी प्रक्रिया के दौरान आपका एक लड़ाकू विमान मार गिराया जाता है, तब आप क्या करेंगे?

ऐसे हमले के बाद पाकिस्तानी कार्रवाई भी होगी, जो जाहिर है तेज और शायद असंगत भी हो? आप इसे किस बिंदु पर रोकेंगे, जहां से वापस आप पर हमला न किया जाए? और उस अंतरराष्ट्रीय तिरस्कार का क्या, जो एलओसी लांघने या एक अंतरराष्ट्रीय सीमा का उल्लंघन करने पर आपको झेलना पड़ेगा?

सैन्य कार्रवाई पर बड़ा आर्थिक नुकसान संभव

लेकिन जो सबसे बड़ी बात है, वो ये कि कहीं ये मुद्दा और ज्यादा न खराब हो जाए. इस वक्त जो भारत की सबसे बड़ी प्राथमिकता है, वो है आर्थिक विकास, जिसके लिए विदेशी निवेश और शांति भरा माहौल चाहिए.

ऐसे में अगर कोई सैन्य कार्रवाई की जाती है, जैसा कि कुर्सियों पर बैठकर युद्ध की सलाह देने वाले कर रहे हैं, तो ऐसे में शांति कैसे बनेगी? जाहिर है कि कोई भी निवेशक युद्ध वाले इलाकों में अपना पैसे नहीं निवेश करता. क्या हम ऐसे विदेशी निवेशों को अपने हाथों से जाने दे सकते हैं, जिसके बिना देश के लोगों को गरीबी से बाहर लाना नामुमकिन सरीखा है?

fgsdfedfसिंधु नदी संधि पर विचार

पाकिस्तान के साथ 1960 में की गई सिंधु नदी संधि पर दोबारा से विचार करने का भी कई रणनीतिकारों ने सुझाव दिया है. यहां तक कि विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता विकास स्वरूप ने भी कहा है कि कोई भी सहकारी व्यवस्था दोनों पक्षों की सद्भावना और आपसी विश्वास पर कायम होती है.

इस संधि के अनुसार, भारत का पूर्व की तीन नदियों – ब्यास, रावी और सतलुज पर नियंत्रण है, तो वहीं पाकिस्तान का पश्चिम की चिनाब और झेलम पर. स्वरूप ने बहुत ही गूढ़ तरीके से संकेत देते हुए कहा था कि ऐसी किसी भी संधि के काम करने के लिए आपसी विश्वास और सहयोग बहुत ज्यादा जरूरी है. ये एकतरफा नहीं हो सकता.

लेकिन जिस संधि के तहत सिंधु और उसकी पांच सहयोगी नदियों का पानी दोनों देशों में बंटता है, वो संधि केवल इन दो देशों ने मिलकर नहीं बनाई थी, दोनों देशों के बीच ये संधि विश्व बैंक ने करवाई थी. ऐसे में भारत अगर इसको अपनी तरफ से तोड़ता है, तो उसका खामियाजा उसे भुगतना पड़ सकता है.

इसके पीछे तर्क दे दिया जाता है कि भारत भौगोलिक रूप से ऊपर की तरफ बसा हुआ देश है, ऐसे में वो पाकिस्तान में जाने वाले 65 प्रतिशत पानी को रोक सकता है, जिसमें पूरा पंजाब शामिल होगा. ऐसे में वहां सूखे और भुखमरी की हालत पैदा हो जाएगी, जिससे पाकिस्तान अपने घुटनों पर आ जाएगा.

लेकिन इस तर्क को देने वाले ये भूल जाते हैं कि हमने जैसे ही ऐसा कुछ किया, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हमारा विरोध शुरू हो जाएगा. और ये नल बंद करने जैसा आसान भी नहीं है. हम पाकिस्तान का पानी तो एक बार रोक भी दें. लेकिन जो पानी हम रोकेंगे, उससे अपने ही शहरों के बहने का खतरा हो जाएगा, ऐसे में उसके लिए भी सैकड़ों उपाय करने होंगे.

सिंधु नदी संधि को खत्म करने से हम नैतिक अधिकार खो देंगे

ऐसा करने पर हम खुद ही एक मिसाल कायम कर देंगे और जब चीन ब्रह्मपुत्र के साथ ऐसा ही करेगा, तो हम उससे नफरत करेंगे, क्योंकि इस नदी के मामले में वो भौगोलिक तौर पर हमसे ऊपर है.

अंतरराष्ट्रीय कानूनों की इज्जत करने में हम हमेशा से ही आदर्श देश रहे हैं. हम अपनी विदेश नीतियों में भी नैतिकता का पालन करते हैं, यहां तक कि पाकिस्तान में भूकंप और बाढ़ आने पर हम मानवता के आधार पर वहां मदद भी करते हैं.

ऐसे में अगर हम वहां लोगों को पानी के लिए तरसाएंगे, तो उससे हमारी ही छवि खराब होगी. इसलिए उमर अब्दुल्ला ने कहा था कि दोनों देशों ने आपस में चार युद्ध लड़े हैं, इसके बावजूद ये संधि अभी तक तोड़ी नहीं गई है.

हालांकि मौजूदा संधि के अनुसार, भारत पश्चिमी नदियों का पानी सिंचाई, भंडारण और यहां तक कि बिजली उत्पादन के लिए भी कर सकता है. इसके अनुसार भारत इन नदियों के पानी का कुछ ऐसा इस्तेमाल करे, जिससे कि पाकिस्तान में पानी की कोई कमी न हो.

लेकिन ताज्जुब की बात ये है कि इन प्रावधानों के बावजूद हमने इनका फायदा कभी नहीं उठाया, जबकि चीन ब्रह्मपुत्र पर बांध बनाते वक्त ऐसे ही प्रावधानों का हवाला देता है.

इस संधि के अनुसार अगर हम ऐसा करना चाहें, तो हम पश्चिमी नदियों पर 36 लाख एकड़ फीट की जगह घेर सकते हैं. हमारा ये कदम विदेश मंत्रालय के बयानों से अधिक मजबूत होगा.

सुरक्षा-व्यवस्था को मजबूत करना होगा

ऐसे में हम करें क्या? एलओसी पर मौजूद पाकिस्तान की फॉरवर्ड पोस्ट के खिलाफ हम अपनी तोपों का इस्तेमाल कर सकते हैं. खासकर वो पोस्ट, जो उरी के नजदीक है. ऐसा करना कम जोखिम भर हो सकता है. हालांकि इस पर जवाबी कार्रवाई जरूर होगी, लेकिन अगर हम उस पर अधिक प्रतिक्रियाएं न दें, तो उन जवाबी कार्रवाइयों को रोका जा सकता है.

बॉलीवुड की ‘फैंटम’ जैसी फिल्मों में दिखाया जाता है कि किस तरह से खुफिया आॅपरेशनों के जरिए जिहादी ठिकानों को निशाना बनाया जाता है, जिसकी भारत कोई जिम्मेदारी नहीं लेता. ऐसे खुफिया आॅपरेशनों से उन लोगों के मन में डर जरूर बैठेगा, जो इस तरह के आतंकियों को भारत भेजते हैं. वहीं भारत की पुलिस और खुफिया तंत्र को मजबूत करने का काम तो बहुत दिनों से चल रहा है और उसको तत्काल प्रभाव से पूरा किया जाना चाहिए.

आखिर में हमें उन लोगों से जवाब मांगना चाहिए, जो पठानकोट हमले के बाद रक्षा संस्थानों की सुरक्षा को मजबूत करने के लिए जिम्मेदार थे. इस हमले के बाद सेना के उप प्रमुख लेफ्टिनेंट जनरल फिलिप कैम्पोज की अध्यक्षता में एक कमेटी बनाई गई थी.

इस कमेटी की रिपोर्ट रक्षा मंत्रालय के पास मार्च से पड़ी हुई है, लेकिन उसके सुझावों पर कोई भी काम नहीं किया गया. ये एक आपराधिक लापरवाही है, जिसके लिए जिम्मेदार लोगों को सजा मिलनी चाहिए.

अगर रक्षा मंत्रालय ने अपना काम किया होता और पूरी तकनीक, जो आज हमारे पास है, अगर उसका इस्तेमाल किया गया होता, तो आतंकी उरी के बेस कैंप की तारों को काटकर अंदर नहीं आ पाते, न ही हमारे 18 जवान शहीद होते.

इस समय बम गिराने की धमकियों से लेकर संधि खत्म करने की जो मांगे उठ रही हैं, उन सबके बीच ये सबसे ज्यादा जरूरी है कि हमारी सरकार की तरफ से जिम्मेदारी भरी कार्रवाई की जाए.

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