नोटबंदी को एक साल हुआ पूरा, लेकी आज भी जारी है बहस, जानिए क्या है विशेषज्ञों की राय

नसबंदी की तरह राजनीतिक भूल साबित होगी नोटबंदीनरेंद्र मोदी सरकार द्वारा एक साल पहले लागू की गई नोटबंदी का सबसे ज्यादा असर देश के सर्वाधिक कमजोर तबके पर पड़ा है। रोज कमाने-खाने वाले दिहाड़ी मजदूर, छोटे व्यापारी, दुकानदार, किसान, महिलाएं और वरिष्ठ नागरिकों को इससे अकथनीय परेशानियों का सामना करना पड़ा। सबसे दुख की बात यह है कि केंद्र सरकार अभी भी झूठ बोल रही है।
नोटबंदी लागू करते समय कहा गया कि इससे काले धन पर लगाम लगेगी, आतंकी फंडिंग की रीढ़ टूट जाएगी, जाली नोटों का धंधा ठप पड़ जाएगा, देश की नकदी पर निर्भरता खत्म होगी और कैशलेस अर्थव्यवस्था का उदय होगा। लेकिन एक साल के बाद इनमें से कोई भी उद्देश्य पूरा नहीं हुआ है। हालांकि सभी चाहते हैं कि काले धन पर अंकुश लगे और आतंकियों को वित्तीय मदद देने वालों पर शिकंजा कसा जाए लेकिन इसके लिए जो तरीका अपनाया गया, वह ठीक नहीं था।
इन उद्देश्यों की पूर्ति के दूसरे तरीके भी हो सकते थे, लेकिन उन पर विचार किए बिना अचानक नोटबंदी लागू कर दी गई। अब सरकार कह रही है कि लोगों के पास जमा एक-एक रुपया बैंकों के पास पहुंच गया है और उससे जो आंकड़े प्राप्त हुए हैं, उनसे काले धन के कारोबारियों के खिलाफ कार्रवाई का बड़ा आधार मिला है। सरकार ऐसे लोगों को नोटिस भेज रही है।
लेकिन यह काम तो नोटबंदी के बिना भी हो सकता था। सरकार का आयकर विभाग ऐसे संदिग्ध लोगों के खिलाफ पहले भी कार्रवाई करता रहा है। इसलिए सरकार के इस तर्क में दम नहीं है। सरकार लगभग तीन लाख शेल कंपनियों के खिलाफ कार्रवाई को भी बड़ी उपलब्धि के रूप में प्रचारित कर रही है, लेकिन इसके लिए भी नोटबंदी लागू करने की जरूरत नहीं थी।
केंद्र सरकार का नोटबंदी का फैसला उसकी बड़ी भूल साबित होगा। यह ठीक उसी तरह का फैसला साबित होगा जैसा 1975 में आपातकाल में इंदिरा गांधी द्वारा लागू किया गया नसबंदी का कार्यक्रम। जब उसे लागू किया गया था तब किसी ने नहीं सोचा था कि इसके कारण श्रीमती गांधी को सत्ता गंवानी पड़ेगी। मोदी सरकार को भी नोटबंदी के फैसले की कीमत चुकानी पड़ेगी।
आप कह सकते हैं कि अगर नोटबंदी इतना ही खराब कदम था, तो इसका उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव पर क्यों नहीं असर पड़ा। दरअसल, उत्तर प्रदेश के चुनाव में सिर्फ नोटबंदी ही एक मुद्दा नहीं था। इसके अलावा तब मोदी राज्य की जनता को भ्रमित करने में कामयाब रहे थे कि 500 और 1000 के नोट बंद करने का उनका यह फैसला गरीबों के हित में है क्योंकि काले धन पर कार्रवाई से हासिल धन को गरीबों के कल्याण की योजनाओं में लगाया जाएगा, जिससे उनका जीवन स्तर ऊंचा होगा। लेकिन जनता को एक बार भ्रमित किया जा सकता है, बार-बार नहीं।
बेहतर होमवर्क से परेशानियों को कम कर सकती थी सरकार
टैक्स रिटर्न भरने वालों और टैक्स अदा करने वालों की संख्या बढ़ी है। काले धन को सफेद बनाने के लिए सिर्फ कागजों पर चल रही शेल कंपनियों पर शिकंजा कसने में कामयाबी मिली है। अब यह आयकर विभाग और सरकार की दूसरी एजेंसियों के इन्वेस्टिगेशन पर निर्भर करता है कि वह इन कंपनियों और आंकड़ों के आधार पर क्या कार्रवाई करती हैं। नोटबंदी के कारण नकदी पर निर्भरता कम हुई है। नकदी का प्रचलन 25 फीसदी तक कम हुआ है।
इसके कारण डिजिटल पेमेंट जैसे लेन-देन के दूसरे तरीकों को बढ़ावा मिला है। अर्थव्यवस्था पर असंगठित क्षेत्र का बोझ कम हुआ है क्योंकि धीरे-धीरे वह क्षेत्र संगठित आकार ले रहा है। इससे उस क्षेत्र से कर वसूली तो बढ़ ही रही है, उसमें काम करने वाले लोगों को भी फायदा हुआ है। उन्हें भविष्य निधि जैसी सुविधाएं मिलने लगी हैं। इसके अलावा जाली नोटो के धंधे और आतंकी फंडिंग पर भी रोक लगी है।
इसमें कोई दोराय नहीं है कि नोटबंदी को लागू करने से पहले सरकार ने ठीक से होमवर्क नहीं किया इतने व्यापक और दूरगामी असर वाले इस कदम के कारण आने वाली परेशानियों के बारे में पहले सोचा गया होता तो इस पर अमल ज्यादा आसान होता।
मसलन, सरकार को पहले दिन से ही घोषणा कर देनी चाहिए थी कि पुराने नोट सिर्फ केवाईसी की शर्तें पूरी करने वाले खातों में ही जमा होगी। हालांकि बाद में इसकी घोषणा की गई लेकिन तब तक चालाक लोगों ने गैर-केवाईसी खातों में रकम जमा करवाई और उसे निकाल भी लिया।
यह कहना भी गलत नहीं होगा कि जीएसटी को कुछ दिनों के बाद लागू किया जाता तो बेहतर होता। दरअसल, अभी नोटबंदी के दुष्प्रभावों से लोग उबरे भी नहीं थे कि उन्हें जीएसटी के रूप में दूसरा झटका लग गया।
अगर नोटबंदी का असर खत्म होने के बाद जीएसटी को जमीन पर उतारा गया होता तो यह आर्थिक रूप से कम नुकसानदेह होता। लेकिन शायद सरकार पर आर्थिक के बजाय राजनीतिक नजरिया ज्यादा हावी था। वह नहीं चाहती थी कि इसका असर अगले लोकसभा चुनाव तक खिंच जाए।





