निर्भया: 16 दिसंबर की उस काली रात को जाने क्या हुआ था बस में…


जैसे यह काफी नहीं था तो मुझे न्याय दिलाने को लड़ रहे मेरे मां-पापा अब न्यायिक और कानूनी पेचीदगियों की हैवानियत के शिकार बन रहे हैं।
कौन हूं मैं, क्या आपको याद है…
भले ही मैं अब आप लोगों के बीच नहीं, लेकिन आज भी रोज अन्याय का जहर पी रही हूं। अरे, आप लोग तो मुझे भूल गए होंगे। मैं निर्भया हूं। आप ही लोगों ने तो मुझे यह नाम दिया था। वही निर्भया जिसके साथ छह लोगों ने 16 दिसंबर 2012, रविवार की रात चलती बस में हैवानियत की थी।
आंखों से आंसू गिर रहे हैं। गला भरा है। आवाज नहीं निकल रही। फिर भी मैं आपके लिए उस भयावह काली रात को दोहराती हूं। दोस्त के साथ उस रात फिल्म देखने के बाद मुनिरका से द्वारका जाने वाली बस में बैठी थी। बस में हम दोनों के अलावा छह लोग थे। कुछ समझ पाती इससे पहले ही सभी ने मेरे साथ छेड़छाड़ शुरू कर दी। दोस्त ने बीच-बचाव किया तो उसे बुरी तरह पीटकर बेहोश कर दिया।
मैं चीखती रही। चिल्लाती रही। बहुत हाथ-पैर जोड़े पर दरिंदों को मुझपर रहम नहीं आया। सभी ने मेरे साथ वो सब कुछ किया जो एक जल्लाद या कसाई भी किसी के साथ करने की हिम्मत नहीं जुटा पाता है। पीटा-बलात्कार किया, शरीर में लोहे का सरिया घुसा दिया। फिर, मरा हुआ जानकार निर्वस्त्र ही चलती बस से बाहर फेंक दिया। उन जख्मों के आंसू मेरी आंखों से आज भी गिरते हैं, रूह उस खौफनाक रात को याद कर आज भी तड़पती है।
फिर मैं बेटी से एक मुद्दा बन गई…
पुलिस ने मुझे सफदरजंग अस्पताल पहुंचाया। डॉक्टरों ने पांच बार ऑपरेशन किया। आंत का अधिकतर हिस्सा बाहर निकाल दिया। जख्म इतने गहरे थे कि मेरी हालत बिगड़ती चली गई। 26 दिसंबर को सरकार ने मुझे इलाज के लिए सिंगापुर भेज दिया। सबको पता था मैं बच नहीं सकती। मैं सभी के लिए मुद्दा बन गई थी।
सब अपनी साख बचाने में लगे थे। आखिरकार वही हुआ जो सब जानते थे। मैं बच नहीं सकी। 29 दिसंबर की रात करीब सवा दो बजे मैंने सिंगापुर के अस्पताल में दम तोड़ दिया। फिर मुझे गम और गुस्से के साथ पंचतत्त्व में विलीन कर दिया गया।
एक नाबालिग होने के आधार पर बच गया। और आज 7 साल बाद भी मुझे मौत की नींद सुलाने वाले बाकी चार दरिंदे अब भी तिहाड़ में मटन खा रहे हैं। और यहां न्याय के इंतजार में मेरी आत्मा अब भी बिलख रही है।
आखिर क्या कारण है कि मेरे साथ हैवानियत करने वालों को जिंदा रखा गया है। क्यों उन्हें मौके दिए जा रहे हैं, अपनी बेगुनाही साबित करने को। क्या जजों को मेरे छलनी हो चुके शरीर की पोस्टमार्टम रिपोर्ट नहीं दिखाई गई थी? क्या बेटियों के साथ हुई हैवानियत और क्रूरता के बाद उसे न्याय के लिए क्रूर इंतजार करना पड़ता है? क्या यही हमारा कानून है? यदि ऐसा है तो क्या इसे ऐसा ही होना चाहिए?
आपने मेरा नाम निर्भया रखा था कि मेरे बलिदान से समाज में बेटियों की सुरक्षा और इज्जत बचेगी। मेरी मौत के बाद कानून सख्त हुए। दावा किया गया कि अब बेटियां निर्भय हो सकेंगी। लेकिन, आज भी मैं जब हैदराबाद में मेरी डॉक्टर बहन के साथ या उन्नाव में रहने वाली सहेली के साथ हुई दरिदंगी की कहानियां सुनती हूं तो मेरी आत्मा कलप उठती है।
कठुआ जैसी घटनाओं के बाद भी न जाने ऐसी कितनी बेटियां हैं जो आज भी इंसाफ का इंतजार कर रही हैं। अभी कुछ दिन पहले मैंने सुना है कि मुख्य न्यायाधीश ने कहा है कि न्याय तत्काल नहीं मिलता। मैं भी मानती हूं कि न्याय तुरंत नहीं हो सकता… पर एक सवाल है, सिर्फ एक। आखिर कितना वक्त चाहिए एक दरिंदे को उसके किए की सजा देने के लिए। सात साल, 10 साल … 25 साल या भंवरी की तरह 27 साल?