देश के इस महान युद्ध को कभी भी नहीं भुलाया जा सकता, साहस और शौर्य से नहीं खून से लिखी गई थी

चीन का युद्ध भारत के लिए किसी गौरव का क्षण नहीं था. इस युद्ध में हमें पीछे हटना पड़ा था. ऐसा क्यों हुआ और इसके लिए कौन जिम्मेदार थे, ये इस लेख का विषय नहीं है, और उस बारे में दर्जनों किताबें लिखी जा चुकी हैं और कई सरकारी रिपोर्ट आ चुकी हैं, तो फिलहाल उस पर बात नहीं करते हैं. लेकिन उसी युद्ध में भारत की ओर से साहस की एक ऐसी शानदार कहानी लिखी गई, जिसकी मिसाल दुनिया के युद्ध इतिहास में दी जा सकती है. यह कहानी सिर्फ साहस और शौर्य से नहीं खून से लिखी गई थी. वह कहानी वीर अहीरों ने लिखी थी.

उस युद्ध का ब्यौरा इस प्रकार है – 13 कुमाऊं बटालियन की चार्ली कंपनी लद्दाख के चोसूल एयरफील्ड की रक्षा के

वहां मौजूद 120 में से 114 सैनिक शहीद हुए. पांच सैनिक चीन की गिरफ्त में आ गए. और एक को टुकडी के प्रमुख ने वापस भेज दिया ताकि वह बता सके कि वहां हुआ क्या था. टुकड़ी के प्रमुख थे मेजर शैतान सिंह, जिन्हें युद्ध के दौरान सेना का दिया जाने वाला सबसे बड़ा सम्मान परमवीर चक्र मरणोपरांत दिया गया. यह कुमाऊं रेजिमेंट की अहीर कंपनी थी, जिसके जवान हरियाणा के रेवाड़ी यानी अहीरवाल क्षेत्र से थे.

भारतीय फौज में जातियों और समुदायों के नाम पर रेजिमेंट हैं, बटालियन है, कंपनी हैं. यह 2019 में भारतीय सेना का सच है. ऐसा होना चाहिए या नहीं, इस पर बहस है लेकिन फिलहाल भारत में जाट, सिख, सिख लाइट इंफेंट्री, राजपूत, महार, गोरखा, जैक राइफल्स, डोगरा जैसी रेजिमेंट हैं. अगर भारतीय सेना के सारे नाम अमेरिकी या यूरोपीय सेनाओं की तरह नंबर या भूगोल या किसी और नाम पर आधारित होते, तो अहीर रेजिमेंट की मांग गैरवाजिब होती, लेकिन तब जबकि जातियों और समुदायों के नाम पर रेजिमेंट से लेकर आर्मी की तमाम इकाइयों के नाम चल रहे हैं, तो ऐसे में अहीर रेजिमेंट की मांग न सिर्फ वाजिब है, बल्कि इसे न मानना नाइंसाफी भी है.

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अहीरों का सेना में भर्ती होने को लेकर एक जुनून भी है. सेना की कई रेजिमेंट में अहीर कंपनी हैं. ऐसा क्यों है, इसकी कुछ समाजशास्त्रीय व्याख्याएं हो सकती हैं और विद्वानों को इस दिशा में रिसर्च करना चाहिए. देश के कई हिस्सों में और कई समुदायों के युवा जब बिजनेस या सिविल सेक्टर की नौकरी या स्टार्टअप वगैरह की सोचते हैं तब हजारों अहीर युवा हर सुबह घंटों दौड़ लगाते हैं और कसरत करते हैं कि किसी तरह उनकी फौज या पारा मिलट्री में भर्ती हो जाए. यही वजह है कि सेना में अहीरों यानी यादवों की संख्या भी काफी है.

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हालांकि सैन्य ऑपरेशन में शहीद होने वालों का जाति के आधार पर आंकड़ा नहीं रखा जाता, लेकिन जब अखबारों में शहीदों के अंतिम संस्कार की खबरें छपती हैं, तो उसके आधार पर मैं अनुमान लगा पाता हूं कि उनमें अहीरों की संख्या काफी है. वैसे भी सेना और अर्धसैनिक बलों में किसान और पशुपालक जातियों के जवान बड़ी संख्या मे जा रहे हैं और शहीद भी हो रहे हैं. देश की एक प्रमुख पत्रिका ने हाल में पुलवामा में शहीद हुए पारा मिलिट्री के हर जवान के परिवारों से बात करके रिपोर्ट छापी की शहीद होने वालों में सबसे ज्यादा पिछड़ी जातियों यानी किसान, पशुपालक और कारीगर जातियों के लोग थे.

इसका मतलब ये नहीं है कि देश के लिए जान देना किसी जाति या जातियों का विशेषाधिकार है. 21वीं सदी में सेना को एक धर्म और जाति निरपेक्ष संस्था होना चाहिए. हालांकि इस बात के अपने तर्क हैं कि जाति और समुदाय आधारित बटालियन, या रेजिमेंट होने के क्या फायदे हैं. इसे जाति के गौरव से लेकर एकरूपता वगैरह की दृष्टि से सही ठहराया जाता है. लेकिन उतने ही मजबूत तर्क इस बारे में है कि भारत जैसे विविधतापूर्ण राष्ट्र की सेना की जाति या कौम वाली पहचान नहीं होनी चाहिए और सेना में जातियों को नहीं, नागरिकों को होना चाहिए.

रक्षा मंत्रालय ने सांसद पीएल पूनिया के पूछे गए एक सवाल के जवाब में 5 फरवरी, 2018 को राज्य सभा को बताया है कि आजादी के बाद से देश में क्षेत्र या जाति या समुदाय आधारित कोई रेजिमेंट नहीं बनाई गई है, न पहले से चली आ रही ऐसी किसी रेजिमेंट को खत्म किया गया है. ऐसी रेजिमेंट की कुल संख्या 25 है. उन्हें समाप्त करने का कोई प्रस्ताव भी नहीं है, जैसा कि सरकार लोकसभा में बता चुकी है. सरकार का कहना है कि उसका किसी समुदाय या धर्म या इलाके के आधार पर नई रेजिमेंट बनाने का कोई इरादा नहीं है, लेकिन इस फैसले पर पुनर्विचार करना चाहिए. चूंकि जाति और समुदाय आधारित रेजिमेंट चल रहे हैं, इसलिए उचित यही होगा कि सरकार अहीर रेजिमेंट बनाने पर गंभीरता से विचार करे.

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यह उस समुदाय का सम्मान होगा, जिनके लोग यूं भी सेना में काफी संख्या में हैं और जिनके बलिदान की शानदार कहानियां हैं.

इस मांग को लेकर एक ऑनलाइन पिटीशन चल रही है. जिसमें दिए गए इस तर्क पर विचार करें- ‘रेजांग ला के मोर्चे पर वीर अहीरों ने जो शौर्य दिखाया वो तो विश्वविख्यात है. किन्तु गीत में कोई सिख कोई जाट मराठा, कोई गोरखा, कोई मद्रासी.. तो कहा गया किन्तु वीर यादव कहीं खो गया. (यादव भी मानते हैं कि देश का जवान किसी जाति का नहीं बल्कि देश का होता है भारतीय होता है. किन्तु जब सब का नाम पता चल जाता है तो अहीर का क्यों नहीं. केवल एक रेजिमेंट न होने के कारण). इसलिए यादव समाज के स्वाभिमान और अधिकार हेतु यादव/अहीर रेजिमेंट का गठन जरूरी है.

लिए पास की पहाड़ी की चोटियों पर तैनात थी. लद्दाख पर भारत का नियंत्रण बनाए रखने के लिए एयरफील्ड को चीन के कब्जे में जाने से रोकना जरूरी था. 18 नवंबर, 1962 की सुबह लगभग पांच से छह हजार चीनी सैनिकों ने तोपखाने के साथ यहां हमला कर दिया. यहां तैनात भारतीय फौजियों को अपने तोपखाने की मदद नहीं मिल रही थी क्योंकि तोपखाने और चीन की सेना के बीच ऊंची पहाड़ी थी. ऐसे मौके पर भारतीय कंपनी ने क्या किया? पीछे हटने की जगह वे आखिर तक लड़े.

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