ट्रेन के इंजन में नहींं होता टॉयलेट फिर ड्राइवर इसे कैसे संभालते हैं

लोको पायलट घंटों तक इंजन में बैठकर ट्रेन चलाता रहता है। न कहीं रुकने की आज़ादी, न बीच रास्ते उतरकर राहत पाने का विकल्प। ऐसे में टॉयलेट की सुविधा न होना उसके लिए कितनी परेशानी खड़ी कर देता होगा, यह समझना मुश्किल नहीं है। लेकिन सवाल उठता है कि आखिर रेलवे इंजन में टॉयलेट लगाती क्यों नहीं? इसका जवाब साधारण नहीं, बल्कि पूरी तरह तकनीकी और सुरक्षा से जुड़ा हुआ है।

भारतीय रेलवे को दुनिया के सबसे बड़े और व्यस्त रेल नेटवर्क में गिना जाता है। सफर के दौरान यात्रियों को बेहतर सुविधा मिले, इस पर लगातार काम भी होता रहता है। साफ-सफाई, टिकटिंग सिस्टम, ट्रेन संचालन, तकनीक, हर लेवल पर रेलवे ने तेजी से बदलाव किए हैं। लेकिन इन सबके बीच एक ऐसी समस्या भी है, जो आम लोगों को नहीं दिखाई देती, मगर लोको पायलटों यानी ट्रेन चलाने वाले ड्राइवरों को रोज झेलनी पड़ती है। यह समस्या है, इंजन में टॉयलेट न होना। तो आइए विस्तार से जानते हैं।

सोशल मीडिया पर वायरल हुई यह घटना

अब जरा सोचिए घंटों का सफर, लगातार अलर्ट रहना, और बीच रास्ते कहीं भी न उतर पाने की मजबूरी। ऐसे में टॉयलेट न होना पायलटों के लिए कितनी बड़ी दिक्कत बन सकता है। लेकिन इंजन में टॉयलेट क्यों नहीं बनाया जाता, इसका कारण भी उतना ही तकनीकी और जरूरी है। सबसे पहले समझ लेते हैं कि डबल इंजन वाली ट्रेनें कैसी होती हैं। जब किसी ट्रेन को ज्यादा वजन खींचना हो या लंबी दूरी पर तेज स्पीड और बेहतर कंट्रोल चाहिए होता है तो दो इंजन लगाए जाते हैं। इसे मल्टीपल यूनिट ऑपरेशन कहा जाता है। खासकर मालगाड़ियां, कोयला और कंटेनर ढोने वाली ट्रेनें अकसर डबल इंजन से चलती हैं। कई बार सुपरफास्ट पैसेंजर ट्रेनें भी डबल इंजन के साथ दौड़ती हैं, ताकि स्पीड कम न हो और ट्रेन समय पर पहुंच सके।

क्या है इंजन का अंदरूनी ढांचा?

अब बात आती है इंजन के अंदरूनी ढांचे की। इंजन में लोको पायलट के बैठने के लिए एक ही सीट होती है। सामने पूरा कंट्रोल पैनल होता है, जिसमें सैकड़ों तरह के बटन, लीवर और डिस्प्ले लगे होते हैं। इंजन के अंदर का हर इंच बेहद जरूरी उपकरणों से भरा होता है। ऐसे में टॉयलेट जैसी सुविधा बनाना संभव नहीं हो पाता। जगह की कमी के साथ-साथ सुरक्षा भी एक बड़ा कारण है। इंजन में इस्तेमाल होने वाले इलेक्ट्रिकल और मैकेनिकल सिस्टम बेहद संवेदनशील होते हैं। टॉयलेट की नमी या पानी किसी भी उपकरण में खराबी ला सकता है, जो ट्रेन की सुरक्षा पर बड़ा असर डाल सकता है। यही वजह है कि इंजन को थोड़ी जरूरतों के हिसाब से डिजाइन किया जाता है। सिर्फ कंट्रोल पैनल, आपातकालीन उपकरण और पायलट की सीट। किसी और सुविधा के लिए यहां जगह ही नहीं होती।

लोको पायलट टॉयलेट की जरूरत कैसे पूरी करते हैं?

अभी की स्थिति में ड्राइवरों को टॉयलेट ब्रेक तभी मिल पाता है जब ट्रेन अगले स्टेशन पर रुकती है। स्टेशन पर रेलवे स्टाफ के लिए अलग टॉयलेट बनाए गए हैं, जहां वे जल्दी से जाकर अपनी जरूरत पूरी कर सकते हैं। हालांकि कई बार मालगाड़ियों का लंबे समय तक रुकना संभव नहीं होता, ऐसे में यह काम और मुश्किल हो जाता है।

वॉटर-लेस टॉयलेट लगाने का परीक्षण चल रहा है

इंजन के पीछे लगे SLR (स्टाफ लगेज रेक) कोच में स्टाफ के लिए टॉयलेट मौजूद होता है, लेकिन लोको पायलट तक ट्रेन के चलते वहां पहुंचना आसान नहीं होता। इसी वजह से पहले कई ड्राइवर मजबूरी में पटरियों के किनारे झाड़ियों का इस्तेमाल कर लेते थे, जिस पर रेलवे यूनियनों ने आवाज उठाई और इसे अमानवीय बताया। लेकिन अच्छी खबर यह है कि रेलवे ने इस दिशा में काम शुरू कर दिया है। कुछ नए इंजनों में छोटे पोर्टेबल या वॉटर-लेस टॉयलेट लगाने का परीक्षण चल रहा है। भविष्य में उम्मीद है कि यह सुविधा सभी इंजनों में लागू हो जाएगी, जिससे लोको पायलटों की यह पुरानी परेशानी काफी हद तक खत्म हो जाएगी।

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