चांद पर घर बनाने की होड़…

 चंद्रमा पर उतरना अब पुरानी बात हो गई है। नई होड़ चांद पर आवासीय परिसर बनाने की है जहां लोग जरूरी सुविधाओं के साथ आराम से रह सकें। इसके लिए ऊर्जा बहुत जरूरी है। अप्रैल में, चीन ने 2035 तक चंद्रमा पर एक परमाणु ऊर्जा संयंत्र बनाने की योजना पेश की।

इसके बाद, नासा के कार्यवाहक प्रशासक सीन डफी ने बताया कि 2030 तक चंद्रमा पर एक अमेरिकी परमाणु रिएक्टर चालू हो जाएगा।

आइए जानते हैं चंद्रमा पर शुरू होने वाला परमाणु रिएक्टर धरती पर काम कर रहे रिएक्टर से कैसे अलग होगा….

चांद पर क्यों जरूरी है परमाणु रिएक्टर

परमाणु रिएक्टर तकनीक सौरमंडल में यात्रा करने और रहने की मानवता की क्षमता को बदल देगी। नासा के कई रोबोटिक अंतरिक्ष यान उसी ऊर्जा स्तर पर काम करते हैं, जितनी ऊर्जा की खपत कुछ बल्ब करते हैं। इससे अंतरिक्ष यान पर रखे जा सकने वाले वैज्ञानिक उपकरणों की संख्या सीमित हो जाती है।

अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन को अपनी ऊर्जा सौर पैनलों से मिलती है, लेकिन यह चंद्रमा पर, जहां ठंडी, अंधेरी रात दो हफ्ते तक रहती है, व्यावहारिक नहीं है। परमाणु रिएक्टर तेज और अधिक कुशल प्रणोदन प्रणालियों को भी सक्षम बनाएंगे। पृथ्वी पर परमाणु रिएक्टर 70 से भी ज्यादा सालों से बिजली पैदा कर रहे हैं।

पहले भी हुए हैं इस्तेमाल

अंतरिक्ष में रेडियोधर्मी ऊर्जा स्त्रोतों का इस्तेमाल पहली बार नहीं होगा। वायजर 1 और वायजर 2 अंतरिक्ष यान, जो 1977 में प्रक्षेपण के बाद से अभी भी काम कर रहे हैं, प्लूटोनियम से संचालित होते हैं, जहां प्राकृतिक रेडियोधर्मी क्षय की ऊष्मा को बिजली में परिवर्तित किया जाता है।

बिजली उत्पादन घटकर लगभग 225 वाट रह गया है

प्लूटोनियम की ऊष्मा से शुरू में 470 वाट बिजली उत्पन्न होती थी। उसके बाद के दशकों में, बिजली उत्पादन घटकर लगभग 225 वाट रह गया है। लेकिन वॉयजर पर प्लूटोनियम ऊर्जा स्त्रोत पृथ्वी पर मौजूद परमाणु ऊर्जा संयंत्रों की तुलना में बैट्रियों जैसे हैं।

यूरेनियम बेदह शक्तिशाली

यूरेनियम जैसे परमाणुओं का श्रृंखलाबद्ध विखंडन सौर पैनलों और वायजर पर मौजूद ऊर्जा स्त्रोतों की तुलना में कहीं अधिक ऊर्जा मुक्त करता है। नासा की विज्ञानी भव्या लाल ने कहा कि एक रिएक्टर एक किलोग्राम यूरेनियम से कोयले से भरी एक मालगाड़ी जितनी ऊर्जा पैदा कर सकता है।

पृथ्वी की तरह नहीं होगा रिएक्टर

चांद पर रिएक्टर पृथ्वी के रिएक्टर की तरह काम नहीं करेगा। यह राकेट के अंदर फिट होने के लिए पर्याप्त छोटा और हल्का होगा। चांद पर पानी या हवा भी नहीं है। दिन में सतह का तापमान 250 डिग्री फारेनहाइट और रात में माइनस 400 डिग्री के बीच रहता है। इससे रिएक्टर के तापमान को कुशलतापूर्वक संचालित रखना और भी मुश्किल हो जाता है।

चंद्र रिएक्टरों के प्रस्तावित डिजाइन में आमतौर पर ऊष्मा कम करने के लिए बड़े रेडिएटर शामिल हैं। लॉकहीड मार्टिन में चंद्र अन्वेषण के उपाध्यक्ष केविन औ ने कहा कि उच्च-शक्ति वाले रिएक्टर की सबसे बड़ी चुनौती ऐसी सामग्री विकसित करनी होगी जो ऊष्मा को बिजली में बदलने के लिए अधिक तापमान में भी टिक सके। फिर भी, विशेषज्ञों का कहना है कि ऐसा ऊर्जा स्त्रोत बनाना वास्तविक रूप से संभव है।

समय सीमा में बनाना चुनौती

2030 तक रिएक्टर बनाना और उसे लांच करना कुछ विशेषज्ञों को अवास्तविक लगता है। वे इसे थोड़ा पेचीदा भी मानते हैं क्योंकि नासा फिलहाल चंद्र सतह पर ऐसी कोई योजना नहीं बना रहा है जिसके लिए इतनी जल्दी वहां रिएक्टर की आवश्यकता हो।

इलिनोइस यूनिवर्सिटी में परमाणु, प्लाज्मा और रेडियोलाजिकल इंजीनियरिंग की प्रोफेसर कैथरीन हफ ने कहा, चंद्र रिएक्टर के डिजाइन और निर्माण के लिए जरूरी काम के अलावा, इसे लांच करने के लिए नियामक मंजूरी लेने में भी कुछ साल लगेंगे।

ऐसे पहुंचेगा रिएक्टर

रिएक्टर को सतह पर ले जाने वाले लैंडर की पेलोड क्षमता 15 मीट्रिक टन होनी चाहिए। वर्तमान में ऐसा कोई अंतरिक्ष यान मौजूद नहीं है, लेकिन अंतरिक्ष यात्रियों को चंद्रमा की सतह पर ले जाने के लिए विकसित किए जा रहे दो लैंडरों, स्पेसएक्स के स्टारशिप और ब्लू ओरिजिन के ब्लू मून के कार्गो संस्करण इस आवश्यकता को पूरा कर सकते हैं।

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