एक दुर्लभ पेंटिंग… जिसमें दर्ज है टीपू सुल्तान की अंग्रेजों पर जीत

एक दुर्लभ पेंटिंग जिसमें दर्ज है टीपू सुल्तान द्वारा अंग्रेजों के खिलाफ जीत। विशेष बात यह भी है कि पोलिलुर की लड़ाई (1780) की 1820 के दौरान बनाई गई इस पेंटिंग के अतिरिक्त भारत में इस टकराव की कोई मूल तस्वीर नहीं बची है। यह एक बेहतरीन कृति है जो आज भी लगभग सही स्थिति में है…

वर्ष 1820 की बनी 32 फीट चौड़ी एक भव्य पेंटिंग वर्ष 1780 में तमिलनाडु के कांचीपुरम के पास पोलिलुर (पुल्लालूर) की लड़ाई में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी पर टीपू सुल्तान की जीत को अमर करती है।

यह दूसरे एंग्लो-मैसूर युद्ध (1780-84) की सबसे अहम घटनाओं में से एक थी और हिंदुस्तान की सरजमीं पर ब्रिटेन की पहली और सबसे बड़ी हार के तौर पर दर्ज है।

टीपू की फौज ने ब्रिटिश सैनिकों पर घात लगाकर हमला किया- जिनका नेतृत्व विलियम बेली कर रहे थे- और ये मुमकिन हुआ टीपू के जासूसी नेटवर्क से मिली जानकारी की वजह से।

जब टीपू की फौज जीत की तरफ बढ़ रही थी, उनके वालिद और मैसूर के सुल्तान हैदर अली, अधिक फौज के साथ वहां पहुंचे और इस जीत को निर्णायक बना दिया। लड़ाई के बाद लगभग 200 दुश्मन सैनिकों को पकड़ लिया गया और बेली को भी कैदी बना लिया गया।

तकनीकी उपलब्धियों का स्मृतिचिन्ह
पोलिलुर पेंटिंग टीपू सुल्तान के दरिया दौलत बाग महल की दीवार पर बनी एक भित्ति चित्र की तीन बची हुई नकलों में से एक है, जिसे उनकी जीत के सम्मान में बनवाया गया था। आज ये पेंटिंग टीपू की तकनीकी उपलब्धियों की याद दिलाती है।

उपनिवेशी भारत से पहले के एक आधुनिक शासक के रूप में, टीपू ने अपनी सेना को फ्रेंच डिज़ाइन की रायफलों और तोपों से लैस किया, यूरोपियन ताकतों से पहले राकेट्स का इस्तेमाल किया और श्रीरंगपटनम (कर्नाटक) में एक अभेद्य किले का निर्माण करवाया।

सिर्फ सैन्य कौशल ही नहीं, टीपू ने पानी की ताकत से मशीनें चलाने के प्रयोग किए, मैसूर में रेशम उद्योग की शुरुआत की, फारस की खाड़ी के पार व्यापार किया, और अपने क्षेत्र में सिंचाई व्यवस्था और बांध बनाए।

पोलिलुर की लड़ाई भारतीय इतिहास में एक महत्वपूर्ण लम्हा है और टीपू और उनकी सेना की अमिट विरासत की गवाही देती है।

युद्ध का सजीव चित्रण
पोलिलुर में मैसूर की फौज तकनीकी रूप से बेहतर थी। इसके सिपाही ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना से ज्यादा अनुशासित और आधुनिक हथियारों से लैस थे। ये लड़ाई बेहद सजीव और रोमांचक तरीके से पेंटिंग में बयां की गई है, जहां हम देखते हैं कि कैसे एक मोड़ पर गोला-बारूद फटने से ब्रिटिश सैनिकों में अफरा-तफरी मच गई।

खूनखराबा जारी था- कटी हुई गर्दनें, तलवारों की खनक और तोपों के धमाके, पूरी तरह से घिर चुकी ब्रिटिश सेना की हार उनके चेहरों पर साफ दिखाई देती है। पेंटिंग के दो हिस्सों में समय जैसे ठहर सा जाता है।

एक तरफ बेली घबराए हुए, नाखून चबाते हुए, अपनी हरे रंग की पालकी में छिपने की कोशिश कर रहे हैं। वहीं मैसूर के ऊंटों, हाथियों और घोड़ों पर सवार लांसर्स ब्रिटिश लाल कोटधारी सैनिकों की तरफ तेजी से बढ़ रहे हैं, जो कर्नल की रक्षा कर रहे थे।

जिनके साथ थे उनके फ्रांसीसी साथी, जिनकी पहचान उनकी खास मूंछों से होती है। दूसरे ठहराव का हिस्सा पेंटिंग के बाईं ओर दिखता है।

फ्रांसीसी कमांडर लाली अपनी दूरबीन से हैदर अली और टीपू सुल्तान को देख रहे हैं, जो सुनहरी पालकियों में सवार, जीत के यकीन के साथ मैदान की तरफ बढ़ रहे हैं।

वे संगीतकारों के साथ इस खूनखराबे के बीच भी सुकून फैलाते हुए आगे बढ़ते हैं। कलाकार ने अपने शाही सरपरस्तों को सख्त प्रोफाइल में इस तरह दिखाया है, जैसे वो किसी बाग की महफिल में बैठे फूलों की खुशबू ले रहे हों, जो दक्कनी रईसों की एक आदर्श छवि को दर्शाता है।

टीपू सुल्तान ईस्ट इंडिया कंपनी के अब तक के सबसे प्रभावी प्रतिद्वंद्वी थे। टीपू ने दिखाया कि भारतीय वापस लड़ सकते हैं और जीत भी सकते हैं।

वे यूरोपीय लोगों के खिलाफ यूरोपीय रणनीति का इस्तेमाल कर सकते हैं और उन्हें हरा सकते हैं। पहली बार जब भारत में किसी यूरोपीय सेना की हार हुई, तो वह पोलिलुर की लड़ाई ही थी।

पोलिलुर की लड़ाई 1780 में हुई थी। इसमें हैदर अली और टीपू सुल्तान के नेतृत्व में मैसूर साम्राज्य की सेना और ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना के बीच लंबा संघर्ष हुआ था। यह लड़ाई दूसरे एंग्लो-मैसूर युद्ध में शामिल की जाती है।

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