इस खबर को मत पढ़ना, क्योकि इस लड़की की मौत के जिम्मेदार हम सब हैं!

IIT से एमटेक करने वाली मंजुला मंजुला मूल रूप से भोपाल की रहने वाली थी। एक वर्ष पहले ही वह दिल्ली में पढ़ाई के लिए आई थी। जानकारी के मुताबिक आइआइटी दिल्ली के नालंदा अपार्टमेंट में पीएचडी की छात्रा मंजुला वाटर रिसोर्स में पीएचडी कर रही थी। मंजुला शादीशुदा थी।उसके पति व अन्य परिजन भोपाल में रहते हैं। शाम साढ़े सात बजे के करीब पुलिस को पीसीआर कॉल मिली, जिसके बाद मौके पर पहुंची थाना हौजखास पुलिस ने शव को पोस्टमार्टम के लिए भिजवाया।
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मंजुला फ्लैट नंबर 413 में रहती थी। वर्ष 2013 में उसकी भोपाल निवासी रितेश विरहा से शादी हुई थी। लेकिन इस मामले में एक नया मोड़ तब आया जब मंजुला की दोस्त प्रगति मंडलोई ने ट्विटर पर कुछ ऐसे खुलासे किये है जिससे यह मौत कई सवाल खड़े करता है। प्रगति ने स्क्रीन्शोट्स ट्विटर पर अपलोड किये है जिनसे यह एक प्रताड़ना का मामला सामने आ रहा है। एक स्क्रीनशॉट 22 मार्च 2017 का है जिसमे मंजुला बता रही है कि ‘उनके ससुर से बात की है जिसमे ये दलील दी जा रही थी कि घर संभालने के लिए तुम 2 बार मार भी खा लोगी तो क्या प्रॉब्लम है?
हम दो दिन आंसू बहाते हैं और तीसरे ही दिन अपने किसी परिजन की शादी में कितना दहेज़ मिला, कौन सी गाडी मिली इस पर बात कर रहे होते हैं। हम आवाज़ उठाना नहीं चाहते। दरअसल हम सभी कायर हैं। हम लड़ना नहीं चाहते। हमें आता है तो बस फेसबुक पर फ़र्ज़ी तस्वीरों पर बड़े बड़े कमैंट्स कर फेसबुकिया क्रांतिकारीपन झाड़ना.हम आखिर यह क्यों भूल जाते हैं कि जगह चाहे कोई भी हो, दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, भोपाल! लड़की का परिवार मॉडर्न हो या देसी, लड़की डॉक्टर हो या इंजीनियर या हो पत्रकार! लड़का लायक हो या नालायक, लेकिन दहेज सभी को चाहिए!क्या अब समय की सबसे बड़ी मांग नहीं है कि मुंह बंदकर समाज के दोहरे मापदंड और लड़की को दहेज़ में तौलने मानदंडों और खोखली, ठरकी और लालची समाजिक व्यवस्थाओं के आगे घुटने टेकने की बजाय अपनी जान देकर नहीं बल्कि इनसे लड़ कर दोषियों को सजा दिलवाइ जाए।आप इस खबर को पढ़ रहे होंगे? कुछ एक की आँख से आंसुओं की अश्रुधारा भी बह रही होगी।
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लेकिन बस चंद पलों के लिए? आप इस खबर के अंत तक जाएंगे। मेरी लिखावट की तारीफ करेंगे, और इस विंडो को बंद कर, सब कुछ भूल कर वापस अपने काम में लग जाएंगे। और यह मेरा दावा है कि ऐसा आप प्रतिदिन करते होंगे क्योंकि लड़कियां इन दरिंदों की शिकार तो हमेशा होती हैं। कभी उन्हें पेट में ही मार दिया जाता है, अगर वहां से बच गईं तो बड़ी होने पर बलात्कार कर मार दिया जाता है और अगर वहां से भी बच गईं तो ये दहेज़ के लोभी भेड़िये उसे जीने का हक़ नहीं देते।अब यह समय नहीं आ गया है कि नई सदी के बदलते संदर्भ, और उन संदर्भों को नया अर्थ देने की चाहत देने के इन्तजार में घरों में कैद बैठी पुरुष सत्तात्मक से पीड़ित महिलाएं अपनी आवाज़ बुलंद करें। आखिर कब तक सहोगे आप? इस आधी आबादी को अब अपने अस्तित्व, व्यक्तित्व और भविष्य को मनचाहा रूप देने के लिए संकल्प लेना ही होगा!