अशांत क्षेत्रों में अफस्पा की समीक्षा के प्रस्ताव को लेकर सुरक्षा तंत्र की अलग राय
सेना के उत्तरी कमान ने पूर्व प्रमुख लेफ्टिनेंट जनरल (रिटा.) अता हसनैन ने कहा कि इसे सियासी नजरिये से नहीं देखा जाना चाहिए। लेकिन करीब तीन दशक पुराने इस कानून की नए सिरे से समीक्षा की जरूरत है। इसे जल्दबाजी में लागू किया गया था। तब कई मुद्दों पर मंथन नहीं हो सका था। अब हमारे पास अफस्पा के साथ कार्रवाई का 29 साल का तजुर्बा है। इसकी समीक्षा कर इसे बेहतर बनाया जा सकता है। हसनैन ने बताया कि अगर इसे किसी इलाके से हटाना भी है तो बिना सेना की सहमति के कोई फैसला लिया जाना उचित नहीं होगा।
इंस्टीट्यूट ऑफ कनफ्लिक्ट मैनेजमेंट के कार्यकारी निदेशक और सुरक्षा विशेषज्ञ अजय साहनी के मुताबिक अफस्पा कानून में कोई कमी नहीं है। अशांत क्षेत्र में आतंकी और उग्रवादी किसी कानून के तहत हमले नहीं करते। लिहाजा सैन्य बलों को भी उनसे मुकाबले के लिए कानूनी सुरक्षा कवच जरूरी है। गड़बड़ी दरअसल इस कानून के क्रियान्वयन में है। साहनी ने कहा कि अगर कोई सैन्य अधिकारी इस कानून की आड़ में मानवाधिकार का उल्लंघन करता है तो सजा का सख्त प्रावधान है। लेकिन पूरा उस पर पर्दा डाल देता है। यही वजह है कि यह कानून बदनाम हो गया है।
जस्टिस जीवन रेड्डी कमेटी रिपोर्ट
नवंबर 2004 में भी यूपीए सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के रिटायर जज जस्टिस जीवन रेड्डी की अध्यक्षता में आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर एक्ट (अफस्पा) की समीक्षा के लिए कमेटी बनाई थी। जून 2005 में सरकार को सौंपी गई रिपोर्ट में कमेटी ने कहा कि यह कानून बदनाम हो गया है, लिहाजा इसे खत्म कर देना चाहिए। गृह मंत्रालय के अधिकारी के मुताबिक कमेटी को इसके प्रावधानों से कोई शिकायत नहीं थी, लेकिन उसके दुरुपयोग के कारण इसे खत्म करने की अनुशंसा की गई थी।