अरावली विवाद पर सुप्रीम कोर्ट ने स्वत: लिया संज्ञान

अरावली रेंज की परिभाषा को लेकर पर्यावरणविदों और विपक्षी दलों की चिंता, गहराते विवाद, आंदोलन और बढ़ती आलोचना के बीच सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले पर स्वत: संज्ञान लेते हुए फिर से सुनवाई करने का फैसला किया है। प्रधान न्यायाधीश (सीजेआई) न्यायमूर्ति सूर्यकांत की अध्यक्षता में तीन जजों की पीठ सोमवार को इस मामले पर सुनवाई करेगी।

सीजेआई के अलावा इस पीठ में न्यायमूर्ति जेके माहेश्वरी और आगस्टीन जार्ज भी हो सकते हैं। विवाद की जड़ केंद्र द्वारा अरावली पर्वतमाला की वह नई परिभाषा है, जो 100 मीटर ऊंचाई के मानदंड पर आधारित है। पर्यावरणविदों का कहना है कि इस एकरूप मानदंड के कारण हरियाणा, राजस्थान और गुजरात में फैली प्राचीन अरावली श्रृंखला के लगभग 90 प्रतिशत हिस्से को ‘अरावली’ की श्रेणी से बाहर किया जा सकता है, जिससे वहां खनन गतिविधियों का रास्ता साफ हो जाएगा।

खनन लीज पर लगाई थी रोक

इससे पहले 20 नवंबर को सुप्रीम कोर्ट ने अरावली पर्वतमाला की एक समान और वैज्ञानिक परिभाषा को स्वीकार करते हुए दिल्ली, हरियाणा, राजस्थान और गुजरात में इसके दायरे में आने वाले क्षेत्रों में नई खनन लीज देने पर रोक लगा दी थी। यह रोक तब तक लागू रहेगी, जब तक विशेषज्ञों की रिपोर्ट सामने नहीं आ जाती।

अरावली की परिभाषा, जो केंद्र ने दी और कोर्ट ने मानी

सुप्रीम कोर्ट ने पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय की समिति की सिफारिशों को स्वीकार किया है। समिति के अनुसार, अरावली जिले में स्थित कोई भी भू-आकृति, जिसकी ऊंचाई स्थानीय भू-स्तर से 100 मीटर या उससे अधिक हो, ‘अरावली पहाड़ी’ मानी जाएगी। वहीं, 500 मीटर की दूरी के भीतर स्थित दो या अधिक ऐसी पहाडि़यां मिलकर ‘अरावली रेंज’ कहलाएंगी।

पर्यावरणविदों की चिंता, अरावली में बढ़ेगा खनन

समाचार एजेंसी एएनआई के मुताबिक, अरावली विरासत जन अभियान से जुड़ी पर्यावरणविद नीलम अहलूवालिया ने इस परिभाषा को “पूरी तरह अस्वीकार्य” करार देते हुए सुप्रीम कोर्ट से 20 नवंबर के अपने आदेश को वापस लेने और केंद्र से नई परिभाषा को रद करने की मांग की है। उनका आरोप है कि यह बदलाव बिना पर्याप्त वैज्ञानिक अध्ययन और जनपरामर्श के किया गया।

उन्होंने कहा कि अरावली जैसे संवेदनशील पर्वतीय पारिस्थितिकी तंत्र में ‘सतत खनन’ की कोई अवधारणा ही नहीं हो सकती। पर्यावरणविदों की मुख्य आपत्ति यह है कि ऊंचाई आधारित परिभाषा अरावली के जटिल और प्राचीन भू-आकृतिक स्वरूप को नजरअंदाज करती है।

उनका कहना है कि इससे जल सुरक्षा, खाद्य सुरक्षा और जलवायु संतुलन पर गंभीर असर पड़ेगा, जो करोड़ों लोगों के जीवन से जुड़ा है। साथ ही, सरकार के इस दावे पर भी सवाल उठाए जा रहे हैं कि नई परिभाषा से केवल दो प्रतिशत क्षेत्र ही प्रभावित होगा, क्योंकि इससे जुड़े कोई ठोस आंकड़े सार्वजनिक नहीं किए गए हैं।

कोर्ट सीईसी की सिफारिश पर आकलन क्यों नहीं?

आलोचकों ने यह भी याद दिलाया कि सुप्रीम कोर्ट की केंद्रीय अधिकार प्राप्त समिति (सीईसी) ने मार्च 2024 में पूरी अरावली श्रृंखला का व्यापक पर्यावरणीय प्रभाव आकलन कराने की सिफारिश की थी, जो अब तक नहीं हुआ।

पर्यावरणविदों का दावा है कि अरावली क्षेत्र के 37 जिलों में पहले से ही वैध और अवैध खनन जारी है, जिससे वनों की कटाई, भूजल स्तर में गिरावट, नदियों का प्रदूषण और स्वास्थ्य संकट पैदा हो रहा है।

पर्यावरण संगठनों की मांग है कि स्वतंत्र वैज्ञानिक आकलन और जनता से परामर्श होने तक खनन पर रोक लगाई जाए और यह स्पष्ट किया जाए कि पुरानी वन सर्वेक्षण मानदंडों की तुलना में नई परिभाषा के तहत कितना क्षेत्र वास्तव में संरक्षित रहेगा।

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