हम रहें या ना रहें, यह झंडा रहना चाहिए

भारतीय स्वाधीनता का सही नेतृत्व देने वाले एवं जीवन की चुनौतियों का डटकर सामना करने वाले मानवता के पुजारी, भारत के महान नेता लाल बहादुर शास्त्री सज्जनता, त्याग, सादगी व ईमानदारी की साक्षात मूर्त थे, जिनके प्रधानमंत्री काल में उनकी सूझबूझ एवं कुशल नेतृत्व से भारत ने पाकिस्तानी फौज को मात दी थी तथा जय जवान-जय किसान का नारा देकर किसानों एवं सैनिकों के मनोबल को ऊंचा उठाया था। शास्त्री जी के क्रियाकलाप सैद्धांतिक न होकर व्यवहारिक तथा जनता की आवश्यकता के अनुरूप थे। 2 अक्टूबर, 1904 को जन्मे लाल बहादुर की प्रारम्भिक शिक्षा घर में हुई। इन्होंने सन 1925 में स्नातक शास्त्री की डिग्री प्राप्त की, तभी से उनके नाम के आगे शास्त्री शब्द सदा के लिए जुड़ गया। स्नातक होने के पश्चात् उन्होंने देश सेवा का व्रत लेते हुए राजनैतिक जीवन की शुरूआत की।
वे सच्चे गांधीवादी थे तथा सारा जीवन सादगी से बिताते हुए गरीबों की सेवा में लगाया तथा भारत की स्वाधीनता संग्राम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने गांधीजी के 1921 के असहयोग आंदोलन, 1930 के दांडी मार्च तथा 1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन में उल्लेखनीय भूमिका निभाई। गांधीजी ने 8 अगस्त, 1942 को अंग्रेजों को भारत छोड़ो व भारतीयों को करो या मरो का आदेश दिया था। उस नारे को शास्त्री जी ने करो नहीं मारो में बदलकर आजादी की क्रांति को पूरे देश में फैला दिया था। शास्त्री जी ने लाला लाजपत राय द्वारा स्थापित लोक सेवक समाज के सदस्य बनकर उल्लेखनीय योगदान दिया। इनके प्रथम राजनैतिक गुरू राजर्षि पुरूषोत्तम टंडन थे, जो शास्त्री जी के सरल, ईमानदार व्यवहार के कारण उनको अत्यन्त प्रिय थे।

15 अगस्त, 1947 को देश के स्वतंत्र होने के बाद उन्होंने मुख्यमंत्री गोविंद वल्लभ पंत के मंत्रिमंडल में पुलिस तथा परिवहन मंत्रालय का दायित्व बखूबी निभाया। सन 1949 में शास्त्री जी गृह मंत्री के पद पर आसीन थे, तब छात्र-छात्राओं के आंदोलन में भीड़ को तीतर-बित्तर करने के लिए उन्होंने लाठीचार्ज के स्थान पर पानी की बौछार का आदेश दिया था, जिसका सकारात्मक प्रभाव पड़ा। शास्त्री जी में असाधारण नैतिकता का गुण था। सन 1952 में जब केन्द्रीय मंत्रिमंडल में वे रेलमंत्री थे, तब एक रेल दुर्घटना होने पर उन्होंने नैतिकता के नाते अपने पद से त्याग-पत्र दे दिया था। शास्त्री जी ने केन्द्र सरकार के वाणिज्य, उद्योग, गृह मंत्री के रूप में कार्य करके देश की महान सेवा की तथा राजकीय विभागों में फैली अव्यवस्थाओं को दूर करने का भरसक प्रयास किया।
शास्त्री जी आयुर्वेद चिकित्सा के बड़े प्रबल पक्षधर थे तथा इस पद्धति को एलोपैथिक चिकित्सा से अधिक कारगर मानते थे। उनमें आत्मविश्वास कूट-कूटकर भरा हुआ था तथा उच्च पदों पर रहते हुए, वे विनम्र थे तथा उनमें लोक कल्याण की भावना थी तथा पदलिप्सा उनमें लेशमात्र भी नहीं थी।

27 मई, 1964 को भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू के निधन के पश्चात शास्त्रीजी को सर्वसम्मति से देश का प्रधानमंत्री बनाया गया। जिस समय शास्त्री जी ने देश की बागडोर संभाली, उस समय देश में अनेक चुनौतियां थी। देश की गरीबी की समस्या के बारे में शास्त्री जी ने कहा था कि मेरी इच्छा है कि मैं देश की जनता को गरीबी के बोझ से मुक्त कर सकूं। उन्होंने गरीब, शोषित वर्ग सहित प्रत्येक वर्ग के उत्थान के लिए कार्य किया। अनाज के अभाव को दूर करने के लिए शास्त्री जी ने घर-घर खेती का अभियान चलाने तथा आत्मनिर्भर बनाने के लिए प्रोत्साहित किया। सभी भारतवासियों को सोमवार का उपवास रखकर केवल एक समय भोजन करने के लिए बल दिया। उन्होंने कहा था कि भारत के लोग किसी के भरोसे न रहकर आत्मनिर्भर बनें। वे सदा विश्व शांति स्थापित करने का प्रयास करते रहे तथा रूस के साथ मित्रता को बढ़ावा दिया। उनमें सबल इच्छाशक्ति, तीक्ष्ण बुद्धि और तीव्र समर्पण की भावना छिपी थी तथा उन्होंने देश का आत्मसम्मान व आत्मविश्वास पुन: प्रतिष्ठित किया।

15 अगस्त, 1965 को स्वतंत्रता दिवस के पावन अवसर पर उन्होंने अपने सम्बोधन में कहा था- हम रहें या ना रहें, लेकिन यह झंडा रहना चाहिए और देश रहना चाहिए। मुझे विश्वास है कि यह झंडा रहेगा, भारत का सिर ऊंचा रहेगा तथा संसार के सभी देशों में भारत एक बड़ा देश होगा। 1965 में पाकिस्तान के भारत पर आक्रमण करने पर शास्त्री जी ने पाकिस्तानी आक्रमण का मुंहतोड़ जवाब देने का आदेश दिया तथा ओजस्वी स्वर में कहा था कि इस बार युद्ध भारत की धरती पर नहीं, बल्कि पाकिस्तान की धरती पर होगा। उनके जय जवान – जय किसान के नारे ने भारत की जनता का मनोबल बढ़ाया तथा किसानों और सैनिकों के माध्यम से देश में चमत्कारी उत्साह फूंक दिया। भारत ने पाकिस्तान को बुरी तरह हराकर अन्तर्राष्ट्रीय पटल पर लोहा मनवाया। उनकी नम्रता व सादगी के पीछे उनके अंदर एक परिपक्व मस्तिष्क, दूरदृष्टि और गम्भीर विवेक था। उनके आदर्श व सिद्धांतों को अपनाना ही उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि देना होगा। मनीराम सेतिया
 
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