‘उत्तम प्रदेश’ तो नही, अब धीरे धीरे राजनीतिक का कुरुक्षेत्र बना ‘उत्तर प्रदेश’
शुरूआत कहां से हो? तो इसके लिए सैफई से अधिक मुफिद जगह सपा को और कहां मिलेगी। यहां के एक स्कूल में 60 टन भारी कृष्ण की प्रतिमा स्थापित करने की तैयारी युद्ध स्तर पर चल रही है। 80 प्रतिशत काम खत्म हो चुका है। यूपी में राजनीति के लगातार मायने बदल रहे हैं। यह कहना गलत नहीं होगा कि उत्तम प्रदेश बनते बनते अब यूपी धीरे धीरे राजनीतिक का कुरुक्षेत्र बन गया है। जहां नीति, नेता, नियत के साथ ही चाल, चरित्र और चेहरा पर साम, दाम, दंड, भेद भारी पड़ गया है।
रामलला को मोदी का इंतजार?
जिस राम को लेकर भाजपा ने अपना राजनीतिक सफर शुरू किया था आज वो राम और अयोध्या दोनों ही अपने विकास को तरस रहे हैं। रामलला तम्बू में तो अयोध्यावासी विकास से दूर मुफलिसी के आलम में जीने को मजबूर हैं। योगी ने अयोध्या को 132 करोड़ का पैकेज देकर वहां विकास के नाम पर हो रही राजनीतिक बहस पर विराम लगाने का प्रयास तो किया है लेकिन वो यह नहीं बता पा रहे हैं कि क्या इस करोड़ों के पैकेज में राममंदिर का निर्माण भी शामिल है या नहीं? यह पूछना इसलिए भी लाजिमी है क्योंकि सूबे में भारतीय जनता पार्टी की सरकार 2002 के बाद नहीं बनी तो 2004 के बाद केन्द्र की सत्ता से भी पार्टी बाहर रही।लेकिन इसके पहले जब पार्टी सत्ता में थी तो ना राम याद आते थे ना ही अयोध्या। दोबारा जब 2014 में राम और अयोध्या की शरण में भाजपा को जाना पड़ा तब फिर वही पुरानी हुंकार भरी राम लला हम आएंगे मंदिर वहीं बनाएंगे। स्वघोषित रामभक्तों को राम का आर्शीवाद मिला और केन्द्र ही नहीं सूबे में भी सत्ता की कुर्सी उन्हें वापस मिली। सत्ता में काबिज होने के बाद अब फिर राम और अयोध्या केवल वादों में ही दिख रहा है। इसके पीछे का तर्क यह यह है कि देश के लगभग बड़े मंदिरों का चौखट चूमने वाले प्रधानसेवक के पास अयोध्या आने का समय अब तक नहीं मिला है।
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जय वीरू में कितना दम?
यूपी में हुए हाल के विधानसभा चुनाव में दो लड़कों की जमकर चर्चा रही। जय वीरू के जोड़ी में खुद को जनता के बीच पहुंचने वाले अखिलेश और राहुल की साख एक बार फिर निगम चुनाव के कारण दांव पर लग गई है। दोनों की पारिवारिक स्थिति वर्तमान में भी एक जैसी है। अखिलेश का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनना ना जनता के रास आया ना ही उनके परिवार। इसी तरह राहुल कब राष्ट्रीय अध्यक्ष बनेंगे ना कांग्रेस आलाकमान बता रही है ना ही संगठन में कोई चर्चा है। केवल मीडिया में ही इस पर कानाफूसी हो रही है। विधानसभा चुनाव में मिले घाव का दर्द अखिलेश के चेहरे अभी भी नुमाया है। मिली हार पर अखिलेश गाहे बेगाहे अपने विकास कार्यो के तीन चलाकर जनता को निशाना बनाते नजर आ रहे हैं। हालांकि अखिलेश के परिवार व पार्टी में परिस्थितियां पहले से बेहतर नजर आ रही हैं। यही कारण है कि अखिलेश विधानसभा के हार के जख्म पर निकाय चुनाव के जीत का मरहम लगाने की जुगत में हैं।
बुआ के वजूद का राजनीतिक संकट
यूपी में इस समय अगर किसी पार्टी की स्थिति सबसे अधिक कमजोर नजर आ रही तो वो है बीएसपी। 2014 में हुए लोकसभा चुनाव के बाद 2017 के विधानसभा चुनाव में भी पार्टी को मुंह की खानी पड़ी। चुनावी दंगल में लगातार धोबी पछाड़ से बीएसीपी अपने वजूद को बचाने की कोशिश में लगी है। ऐसे में निकाय चुनाव में बेहतर प्रदर्शन बीएसपी के लिए संजीवनी का काम कर सकती है। बीएसपी सुप्रीमो मायावती भी इस अहमियत को समझती हैं। यही वजह है कि बीएसपी पहली बार अपने सिंबल पर निकाय चुनाव लड़ रही है। साथ ही मायावती अपने कोर वोटर (दलित) से सीधे संवाद की तैयारी में भी जुट गई हैं।
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कांग्रेस के सामने 2019 का लक्ष्य
लोकसभा के बाद यूपी में विधानसभा हुए, जिसमें कांग्रेस अपने अस्तित्व को बचाती नजर आई। ऐसे में पार्टी के लिए हिमांचल व गुजरात के विधानसभा चुनाव के साथ ही यूपी निकाय चुनाव में दमदार वापसी करना बहुत जरूरी है। कांग्रेस को वासी से 2019 के लोकसभा चुनाव को लडऩे में नया जोश मिल जाएगा। इस बात को कांग्रेस भी बखूबी समझती है। यही वजह है कि पार्टी ने इन तीनों चुनाव को लेकर एड़ी चोटी का जोर लगाया है। गुजरात में खुद राहुल गांधी तो यूपी में कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष राज बब्बर कमान संभाले हुए हैं।