मै गरीब का बच्चा था इसलिये भूखा रह गया, पेट भर गया वो कुत्ता जो अमीर के घर का था
बिहार में लीची उगाने के लिए मशहूर मुजफ्फरपुर में सौ से अधिक बच्चों की मौत एक्यूट इन्सेफेलाइटिस सिंड्रोम (एईएस) से क्यों हुई? इसको लेकर कई तरह की बातें कही जाती हैं, लेकिन अब हम जानते हैं कि ऐसा सिर्फ ढेर सारी लीची खाने के कारण नहीं हुआ, जैसा कि शुरुआती दिनों में अनुमान लगाया जा रहा था। विशेषज्ञों का कहना है कि ऐसा कई कारणों से हुआ है-लीची में विषाक्त पदार्थ, अत्यधिक गर्मी, आर्द्रता, कुपोषण और बदहाल सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा। इनमें से अंतिम दो कारणों पर विशेष ध्यान देने की जरूरत है, क्योंकि ये हमारी राजनीतिक प्राथमिकताओं और इच्छाशक्ति के बारे में असहज करने वाले सवाल उठाते हैं।
किनके बच्चे भूखे सो जाते हैं? व्यापक स्वास्थ्य सुधारों के मौजूदा समय में स्वास्थ्य सेवा तक किनकी पहुंच है? सामाजिक और आर्थिक विषमताओं से भरे देश में भूख एक गंभीर राजनीतिक मुद्दा है, जिसे कई लोग झुठलाना चाहेंगे। बिहार भारत के सर्वाधिक गरीब राज्यों में से एक है। जो बच्चे मुजफ्फरपुर में बेवजह मर गए, वे बिहार के अत्यंत निर्धन परिवारों से थे।
”हमने कुछ ऐसे भी गरीब देखे हैं
जिनके पास पैसों के अलावा कुछ भी नहीं”
जमीनी रिपोर्ट बताती है कि एईएस से मरने वाले ज्यादातर बच्चे महादलित समुदाय के हैं, जिनमें मुसहर और अनुसूचित जाति के लोग शामिल हैं। उनमें से ज्यादातर कुपोषित थे। यह याद रखने वाली बात है कि अच्छी तरह से पोषित बच्चे लीची का सेवन करने से आम तौर पर जोखिम का सामना नहीं करते हैं। मुजफ्फरपुर में अब तक हुई ज्यादातर मौतों के लिए हाइपोग्लाइकेमिया या खून में ग्लूकोज का स्तर कम होने को जिम्मेदार बताया गया है। जब कुपोषित बच्चे लीची का सेवन करते हैं और खाली पेट सो जाते हैं, तो उन्हें नुकसान होता है। लीची में पाए जाने वाले विषाक्त पदार्थ के कारण विशेष रूप से ऐसे मामलों में कई तरह की रासायनिक प्रतिक्रियाएं होती हैं, जो हाइपोग्लाइकेमिक एन्सेफैलोपैथी (खून में ग्लूकोज का स्तर बहुत कम हो जाना) का कारण बनती हैं।
बिहार में एईएस कोई नई बात नहीं है। तीव्र इन्सेफेलाइटिस सिंड्रोम का प्रकोप राज्य के उत्तरी क्षेत्रों और उत्तर प्रदेश के पूर्वी भागों में पहले भी हुआ है, जो समान रूप से गरीबी से ग्रस्त है। ध्यान देने वाली बात यह है कि इसकी पुनरावृत्ति आम तौर पर उन क्षेत्रों में होती है, जो गरीब होते हैं और जहां बड़ी संख्या में बच्चे कुपोषित होते हैं और जहां सक्रिय प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली का अभाव होता है।
”गरीब भूख से मरे तो अमीर आहों से मर गए।
इनसे जो बच गए वो झूठे रिवाजों से मर गए।।”
बिहार में बाल कुपोषण की कहानी कोई नई बात नहीं है। कुछ वर्ष पहले एक विशेषज्ञ रिपोर्ट में बताया गया था कि राज्य में पांच साल से कम उम्र के आधे से अधिक बच्चे कम वजन वाले या छोटे कद के थे, जो राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-3 के अनुसार कुपोषण के पुराने होने के संकेत देते थे। इसे स्वीकार करते हुए, बिहार सरकार और केंद्र सरकार ने एकीकृत बाल विकास सेवा निदेशालय (आईसीडीएस) द्वारा प्रशासित पूरक पोषण कार्यक्रम (एसएनपी) के लिए प्रति वर्ष 1,100 करोड़ रुपये देने की प्रतिबद्धता जताई थी। विशेषज्ञों का कहना है कि कार्यक्रम के आवंटित फंड का नियमित रूप से घपला होता है और जमीनी स्तर पर सार्वजनिक सेवा वितरण का अभाव है। रिपोर्ट में बताया गया है कि बिहार के तीन जिलों में 200 आंगनवाड़ियों में औचक दौरा करने पर पाया गया कि उनमें से 24 फीसदी दिन के समय बंद थे, जबकि उन्हें खुला होना चाहिए था, और भोजन केवल 59 फीसदी दिनों में दिया जाता था, जबकि उन्हें सब दिन दिया जाना चाहिए था। जब आंगनवाड़ियां खुली थीं और भोजन दिया गया था, तब 40 में से औसतन 22 बच्चे ही उपस्थित थे। और इन भोजन में, निर्धारित पौष्टिक तत्वों का केवल तीन चौथाई हिस्सा ही उपलब्ध था।
हालांकि इस स्थिति में सुधार आया है, लेकिन बहुत कम। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-4 का आधिकारिक आंकड़ा बताता है कि बिहार में पांच साल से कम उम्र के 48 फीसदी बच्चे (शहरी और ग्रामीण) छोटे कद हैं। बाल कुपोषण की यह घिनौनी कहानी माताओं और किशोर उम्र की गर्भावतियों के खराब पोषण की स्थिति से और जटिल हो जाती है। यह शर्मनाक तस्वीर केवल बिहार की ही नहीं है, बल्कि हिंदी भाषी क्षेत्र के कई अन्य राज्यों की भी है।
”जब भी देखता हूँ किसी गरीब को हँसते हुए;
तो यकीन आ जाता है ..
की खुशियो का ताल्लुक दौलत से नहीं होता !!’
मुजफ्फरपुर में हाल ही में हुई बच्चों की मौत के सही कारणों का अभी पता नहीं चल पाया है, लेकिन हम जानते हैं कि अत्यधिक गर्मी, कुपोषण और लीची के अत्यधिक सेवन के बावजूद उन बच्चों को बचाया जा सकता था। यहां दूसरा परेशान करने वाला सच सामने आता है। उनमें से बहुत से बच्चे आज जीवित होते, अगर उन्हें समय पर इलाज मिल पाता। लेकिन ऐसा नहीं हुआ, क्योंकि प्रभावित क्षेत्र में स्वास्थ्य सेवा प्रणाली लगभग बेकार है।
बच्चों को रात में भोजन और समय पर पर्याप्त ग्लूकोज की आवश्यकता होती है। लेकिन दुखद है कि ऐसी व्यवस्था किए जाने के बावजूद अनियमितता की वजह से वर्ष 2016-18 में संकट और गहरा गया। इस वर्ष अग्रणी स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं द्वारा चलाए जाने वाले बेहद जरूरी जागरूकता अभियान में भी कमी आई है। हम अनुमान लगा सकते हैं कि ऐसा लोकसभा चुनाव की वजह से हुआ होगा। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने एईएस के कारण मरने वाले बच्चों के प्रत्येक परिवार को चार लाख रुपये की अनुग्रह राशि देने की घोषणा की है, लेकिन मुजफ्फरपुर और अन्य जगहों पर, जहां बच्चे मर रहे हैं, रोकथाम के उपाय पर ध्यान केंद्रित करने और दीर्घकालीन उपाय तलाशने की जरूरत है।
”क्या किस्मत पाई है रोटीयो ने भी निवाला बनकर,
रहिसो ने आधी फेंक दी, गरीब ने आधी में जिंदगी गुज़ार दी!!”
बाल कुपोषण बच्चों के लिए जीवित रहने की संभावना को प्रभावित करता है, उनकी प्रतिरक्षा और साथ ही सीखने की क्षमता को कम करता है। यह बाद के जीवन में उनकी उत्पादकता को प्रभावित करता है। बाल कुपोषण न केवल हमारे वर्तमान को प्रभावित करता है, बल्कि अगर हमने ध्यान नहीं दिया तो यह हमारे भविष्य को भी प्रभावित करेगा। मुजफ्फरपुर के सबक पर तत्काल ध्यान दिए जाने की जरूरत है।