क्या होता है सिक्स पॉकेट सिंड्रोम? इन लक्षणों से करें बच्चों में इसकी पहचान

बीते दिनों ‘कौन बनेगा करोड़पति’ का एक एपिसोड इंटरनेट पर बड़ी चर्चा में रहा, जहां 10 साल के बच्चे द्वारा अमिताभ बच्चन के साथ बातचीत को ट्रोलर्स से लेकर व्लागर्स ने लिया निशाने पर। इस दौरान एक शब्द चर्चा में आया ‘सिक्स पाकेट सिंड्रोम’। आखिर क्या होता है सिक्स पाकेट सिंड्रोम और कहीं आपका बच्चा भी तो नहीं हो रहा इसका शिकार, बता रही हैं पैरेंटिंग कोच पल्लवी राव चतुर्वेदी।
मम्मी-पापा की आंखों का तारा है नौ साल की सान्वी, तो वहीं चाचू उसे रोज उसकी पसंद की चीज दिलाते हैं और शाम को आफिस से आकर पार्क घुमाने भी ले जाते हैं। घर में दादी बस उसी पर अपनी जान न्योछावर करती हैं तो दादू उसे पहला निवाला खिलाए बिना दिन का कोई भी भोजन नहीं करते।
इतने लाड़-प्यार के चलते सान्वी का आत्मविश्वास इतना है कि वह कभी-कभी कुछ ऐसी बातें भी बोल जाती है कि उसके टीचर्स अक्सर उसके माता-पिता को दबी आवाज में टोक देते हैं। लाड़-दुलार करना कोई बुरी बात नहीं, मगर आधुनिक शहरी माता-पिता की सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक है: अपने बच्चे के प्राकृतिक आत्मविश्वास को पोषण देना, लेकिन अनजाने में उसे अहंकार की ओर जाने से बचाना। हर माता-पिता चाहते हैं कि उनकी संतान को कभी किसी चीज की कमी न हो। मगर कहीं आपका यह लाड़-प्यार बच्चे को सामाजिक रूप से कमजोर तो नहीं कर रहा। इस पूरे दृश्य को कहा जाता है ‘सिक्स-पाकेट सिंड्रोम’।
कहीं यह आपका घर तो नहीं
‘सिक्स-पाकेट सिंड्रोम’ एक ऐसा सामाजिक परिदृश्य है जिसमें एक बच्चे को छह वयस्कों (आमतौर पर माता-पिता और दादा-दादी/नाना-नानी या बुआ-मौसी-चाचा जैसे संबंधी) द्वारा भावनात्मक और वित्तीय समर्थन मिलता है। यह स्थिति बच्चों को प्यार और सुरक्षा का अनुभव कराती है, लेकिन कभी-कभी यह भौतिक वस्तुओं की अधिकता का कारण बन जाती है। इस प्रकार के समर्थन से बच्चे को लगातार आराम और लाड़-प्यार मिलता है, जिससे वे मेहनत औ वस्तुओं के प्रति सम्मान की भावना को खो देते हैं।
उदाहरण के लिए, जब बच्चे को एक खिलौने की मांग पर तीन खिलौने दिए जाते हैं, तो यह व्यवहार उन्हें सिखाता है कि रोने पर उनकी इच्छाएं पूरी हो सकती हैं। इससे बच्चों में ‘न’ सुनने की क्षमता विकसित नहीं होती, और वे अपनी जिद को पूरा करने के लिए टैंट्रम दिखाने की आदत डाल लेते हैं। इस प्रकार, यह सिंड्रोम बच्चों के विकास में बाधा डाल सकता है, क्योंकि वे सीमाओं और मेहनत के महत्व को नहीं समझ पाते।
स्थापित करें सीमाएं और समन्वय
यह आज के परिवारों में सबसे संवेदनशील मुद्दों में से एक है। दादा-दादी/नाना-नानी स्नेह के कारण और कभी-कभी अपराधबोध के चलते अपने पोते-पोतियों को कुछ भी देने से मना नहीं कर पाते हैं। हालांकि, बच्चे के दीर्घकालिक भावनात्मक विकास के लिए लगातार अनुशासन महत्वपूर्ण है। अभिभावक दादा-दादी की भागीदारी के लिए आभार व्यक्त करें, लेकिन एक साझा लक्ष्य पर सहमत हों कि बच्चे को बिना वजह कोई भी तोहफा देने से बचें। स्वजन को प्यार जताने के लिए वैकल्पिक तरीके अपनाने के लिए कहें।
जैसे साथ में पढ़ना, सैर पर जाना आदि, ताकि स्नेह को भौतिक संतुष्टि के बराबर न समझा जाए। जब सभी स्वजन समान तरीके का उपयोग करते हैं और लगातार सीमाओं का पालन करते हैं, तो बच्चे जल्दी सीखते हैं कि नियमों का पालन करना जरूरी है। बच्चे के प्रयास को पुरस्कृत करें। ‘तुम बहुत होशियार हो’ जैसी प्रशंसा के बजाय ‘मुझे इस बात पर गर्व है कि तुमने कितनी मेहनत की’ का प्रयोग करें।
डिजिटल मेंटरशिप की दिशा
जेन अल्फा ऐसे समय में बड़ी हो रही है जहां इंटरनेट मीडिया पर हर चीज का सत्यापन होता है। इसलिए, बच्चों को डिजिटल दुनिया की जटिलताओं, प्रतिक्रिया और त्वरित पलटवार जैसी स्थितियों को समझाना आवश्यक है। सहानुभूति और स्वीकार्यता जैसे गुणों का विकास करना भी महत्वपूर्ण है।
बच्चों को डिजिटल दुनिया से दूर नहीं किया जा सकता, इसलिए डिजिटल प्रतिबंध लगाने के बजाय डिजिटल मेंटरशिप की दिशा में बढ़ना बेहतर है। उन्हें ऐसे इनफ्लुएंसर्स को फालो करने के लिए प्रेरित करें जो सहानुभूति और जिज्ञासा का पाठ पढ़ाते हैं। जब बच्चे आत्मविश्वास और शिष्टाचार को एक साथ देखते हैं, जैसे कि वयस्कों का बात करने का लहजा या माफी मांगना-धन्यवाद कहना आदि, तो वे इन मूल्यों को सीखते हैं।
ये हैं सिक्स-पाकेट सिंड्रोम के रेड फ्लैग्स
माता-पिता अक्सर अधिकार की भावना को केवल खिलौनों या पैसों की मांग से जोड़ते हैं, लेकिन अधिक स्पष्ट संकेत व्यवहार से जुड़े होते हैं। जेन अल्फा (पांच-15 वर्ष के बच्चे) के माता-पिता को घर पर इन संकेतों पर ध्यान देना चाहिए। यदि ये पैटर्न लगातार दिखाई दें, तो संकेत हो सकता है कि बच्चे का वातावरण धैर्य और प्रयास के बजाय आराम और समर्थन को प्राथमिकता दे रहा है:
वयस्कों या साथियों को बार-बार टोकने की प्रवृत्ति और यह अपेक्षा करना कि दूसरे उनकी बात सुनने के लिए रुकेंगे।
काम के प्रति लगन का अभाव होना या कठिनाई के पहले संकेत पर ही किसी काम को छोड़ देना।
‘नहीं’ को स्वीकार करने के बजाय, उसे बहस की शुरुआत मानना।
दूसरों की भावनाओं या संघर्षों के बारे में बहुत कम जिज्ञासा होना।
छोटी-छोटी उपलब्धियों के लिए भी तालियों या ध्यान की तलाश करना।





