ऑस्ट्रेलिया के पर्थ शहर में पहाड़ की विरासत, पढ़िए पूरी खबर

रोजी-रोटी की खातिर सात समंदर पार ऑस्ट्रेलिया के पर्थ शहर में जा बसे महेंद्र बहुगुणा के दिल में पहाड़ की यादें जिंदा रहीं तो उन्होंने वहां अपने आशियाने को ही ‘मिनी गढ़वाल’ बना डाला। पुरखों की विरासत को पर्थ में सहेजकर उनका परिवार जहां सात समंदर पार भी पहाड़ की संस्कृति को जी रहा है, वहीं अंग्रेजों को भी पहाड़ी खानपान और संस्कारों से रू-ब-रू करा रहा है।

मूलरूप से पौड़ी जिले के खिर्सू ब्लॉक स्थित ग्राम पोखरी निवासी महेंद्र बहुगुणा का परिवार 12 साल पहले पर्थ में जा बसा था, लेकिन उनके आशियाने को देख लगता नहीं कि वह कभी पहाड़ से दूर हो पाए। उनका यह आशियाना पूरी तरह पहाड़ी घर नजर आता है। घर में मसाले पीसने को सिल-बट्टा है तो गेहूं पीसने को जंदरी (पत्थर की बनी हाथ चक्की)। दही बिलोने को घर में पारंपरिक बर्नी भी नजर आती है। कुछ ही दिन पूर्व अपनी ससुराल नयारघाटी के सीला-बांघाट पहुंचे महेंद्र ने बताया कि उनकी पत्नी रुचि काला बहुगुणा सहित दोनों बेटे शिवम और रचित घर पर ठेठ गढ़वाली में ही वार्तालाप करते हैं। बाड़ी (मंडुवे के आटे का फीका हलुवा), थिंच्वाणी (पहाड़ी मूला का साग), फाणू (कुलथ को पीसकर बनने वाला साग) सहित छाछ का पल्यो (मट्ठा में झंगोरा मिलाकर बनने वाला व्यंजन) उनके दैनिक भोजन का हिस्सा है।

ताज होटल के काबिल शेफ रहे महेंद्र बताते हैं कि रोजी-रोटी और बेहतर भविष्य की खातिर उनका परिवार भले ही पर्थ में बस गया हो, लेकिन अपनी जन्मभूमि की यादों को वह कभी भुला नहीं पाए। बकौल महेंद्र, ‘बचपन के दिनों में हम शादी-ब्याह के दौरान पंगत (पंक्ति) में बैठकर पत्तल (मालू के पत्ते से बना बर्तन) में भोजन किया करते थे। आज भी मुझे जमीन पर आसन लगाकर पत्तल में भोजन करने से ही तृप्ति मिलती है। पितरों की समौण (याद) के तौर पर दादाजी की कांसे की थाली और लोटा भी मेरे पास है। यह बर्तन हमेशा परिवार के साथ सामूहिक भोज की शोभा बढ़ाते हैं। 

बचपन के खिलौने की तलाश में एक माह की छुट्टी 

माटी के प्रति अगाध श्रद्धा महेंद्र को उनकी पुरानी यादों से जोड़े हुए है। इन दिनों वह अपने बचपन के खिलौने (सरिये के घेरे से बनी गाड़ी) की खोज में एक माह की छुट्टी लेकर गांव आए हैं। शायद गांव के खंडहर हो चुके मकान में कहीं मिल जाए। 

पड़ोसियों भी पहाड़ी अंदाज में सत्कार 

महेंद्र बताते हैं कि पर्थ में पड़ोसी अंग्रेज परिवारों के साथ भी उन्होंने पहाड़ जैसा रिश्ता ही कायम किया हुआ है। जब भी कोई पड़ोसी उनके घर आता है, वह भैजी समन्या! (पहाड़ी अंदाज में अभिवादन) संबोधन के साथ उसका पारंपरिक व्यंजनों से सत्कार करते हैं। 

गढ़वाली गीत-संगीत से गूंजता है आशियाना 

महेंद्र के परिवार को गढ़वाली गीत-संगीत से बेहद लगाव है। तीज-त्योहार (विशेषकर होली-दिवाली) के मौकों पर उनके आशियाने में गढ़वाली गीतों की गूंज रहती है। महेंद्र बताते हैं कि पड़ोसी अंग्रेज परिवार भी गढ़वाली गीतों पर जमकर झूमते हैं। 

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