उत्तराखंड में ऐपण से होता है मां लक्ष्मी का स्वागत…

दिवाली की रौनक अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग होती है। तो अगर आप दिवाली पर कहीं बाहर जाकर इसका सेलिब्रेशन करना चाहते हैं तो उत्तराखंड और राजस्थान आकर इसकी अनोखी छटा देख सकते हैं। तो यहां की दिवाली में क्या होता है खास, जानेंगे यहां….

ऐपण से होता है लक्ष्मी जी का स्वागत

उत्तराखंडी समाज में कुछ परंपरागत चीजें हैं जो आज भी पीढ़ियों से चली आ रही रीतियों के साथ मनाई जाती है। दीपों के उत्सव पर यूं तो कई चीज़ें खास होती हैं मसलन इस दिन उड़द दाल के पकौड़े और पूड़ी जरूर बनते हैं और जिन लोगों के यहां दिवाली नहीं होती है उन्हें भी ये दोनों चीज़ जरूर देते हैं। त्योहार से एक दिन पहले अनाज के पिंड बनाए जाते हैं और सुबह को गाय बैल के सींग में तेल लगाया जाता है।

उन्हें धूप-दीप दिखाकर पूजा की जाती है और फूलों की माला पहनाकर अनाज के पिंड खिलाए जाते हैं। भगवान से प्रार्थना की जाती है कि हमारे अनाज भंडार में हमेशा बरक्कत रहे। रात का सबसे खास आकर्षण होता है भैलो खेलने का। भैलो का मतलब एक रस्सी से है, जो पेड़ों की छाल से बनी होती है। बग्वाल के दिन रस्सी के दोनों कोनों में आग लगा देते हैं औऱ फिर रस्सी को घुमाते हुए भैलो खेलते हैं। लोग समूहों में इकट्ठा होकर पारंपरिक गीतों पर नृत्य करते हैं।

स्वादिष्ट व्यंजन किए जाते हैं तैयार

राजस्थानियों की दिवाली बनाने का अलग ही तरीका होता है। यही कोई एक पखवाड़े तक दीपों के पर्व का आयोजन होता है। पूर्णिमा से अमावस्या तक सेलिब्रेशन होता है। धनतेरस को बन नए बर्तन खरीदते हैं। सोने-चांदी के आभूषण खरीदते हैं और धन्वंतरि महाराज की पूजा करते हैं। दिवाली की तैयारियां साफ-सफाई से शुरू होती हैं। बस अंतर इतना होता है कि इस दिन मिट्टी के दीपक जलाते हैं।

दिवाली के दिन राजस्थानी गुझिया, मीठी और नमकीन पूड़ी, गुड़ से बनी चीज़ें बनाकर खाते हैं। इस दिन कारोबारी लोग बही की पूजा करते हैं। पेन और बही के पास दीपक जलाकर रखते हैं और दिवाली के बाद से नया बही खाता शुरू हो जाता है। दिवाली के दूसरे दिन अन्नकूट करते हैं। यह 56 भोग होता है। इसके अगले दिन दाल बाटी चूरमा बनाकर खाया जाता है। इसे बनाकर खाना शुभ माना जाता है।

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