यौन सुख पर अपना दावा ठोंकने वाली महिलाओं की कहानी है

इसका अर्थ है कि यदि लोकप्रिय गीतों में लव की जगह लस्ट यानी कामेच्छा का इस्तेमाल किया जाता तो वह सच के ज्यादा करीब होता. ज्यादातर शुद्धतावादी इस कोट पर ऐतराज़ कर सकते हैं कि प्यार और सेक्स कैसे अलग-अलग हो सकता है लेकिन हमारे देश ने वैश्वीकरण के 25 सालों में इतनी प्रगति कर ली है कि अब हम कम से कम प्रेम और वासना को अलग-अलग देख सकते हैं खासकर पॉपुलर मीडियम में ये हिमाकत कर पाना उपलब्धि ही कही जायेगी.

नेटफ्लिक्स ने लस्ट स्टोरीज़ बना कर कुछ ऐसी ही हिमाकत की है. इन दिनों देश में सेक्सुअल एंगल लगभग हर स्टोरी में मिल जायेगा. हालांकि यह हम पर है कि हम उसे नोटिस भी करना चाहते हैं या नहीं. सेक्स अब केवल सावधान इंडिया या क्राइम पेट्रोल की बैकबोन नहीं है बल्कि भाभी जी घर पर हैं की यूएसपी भी एडल्ट कॉमेडी है. इसी तरह अध्यात्म और राजनीति का हार्डवेयर इन दिनों जैसे सेक्स के सॉफ्टवेयर पर ही लिखा जा रहा है. इनकी अंदरूनी गाथायें सुन कर ऐसा लगता है जैसे दशकों से देश के गिरहर में पड़ा ‘परदा’ किसी ने नोच दिया हो.

रिपोर्ट: इस खबर को पढ़कर आज के बाद कभी नही इस्तेमाल करेंगे वियाग्रा

इससे पहले घर-संसार और माया मेमसाहब के सिरे ही औरतों के चुनाव के दो पड़ाव माने जाते रहे हैं. इस बीच औरतें कैसे इतनी बदल गयीं कि ‘हजारों ख्वाहिशें ऐसी’ अब ‘हेट स्टोरीज’ और ‘मस्ती’ बन चुकी है. औरतें अब अपनी जिंदगी को क्लोज इंडेड न होने देने पर अड़ रही हैं. फिर भी देश का बहुमत 90 के दशक के गानों के कैसेट की तरह औरतों को दो साइड A और B पर ही सुनना चाह रहा है. हालांकि देश की अर्थव्यवस्था 90 के समय से अब तक 360 डिग्री पर घूम चुकी है, ठीक उसी तरह वैश्वीकरण ने औरतों की जिंदगियों को भी सीडी की तरह गोल बना दिया है. जिसमें हर सिरा अब ओपेन इंडेड है.

लस्ट स्टोरीज़ ने चार कहानियों के जरिये हमारे समाज के 4 सच सामने रखे हैं. पहली कहानी अनुराग कश्यप की है जो डार्क फिल्मों के लिये जाने जाते हैं. उन्होने कुछ इसी अंदाज़ में अपनी बात भी रखी है. बौद्धिकता के साथ जुड़ा कपट, अविश्वास और अहंकार राधिका आप्टे के किरदार की सेक्सुअल डिज़ायर के फॉर्म में सामने आया है. जहां मक्कारी के साथ असुरक्षा और दबंगई, चरम पर है. कुछ ऐसी ही कहानी हरामखोर फिल्म की भी है, लेकिन वहां उम्मीद है और क्लास का अंतर है. हरामखोर के नवाजुद्दीन सिद्दीकी और लस्ट स्टोरी की राधिका आप्टे में अंतर करना मुश्किल है कि कौन ज्यादा मक्कार है!

दूसरी कहानी ज़ोया अख्तर की है, इस कहानी में भूमि पेडनेकर का निभाया शहरी घरेलू नौकरानी का किरदार इतने डीटेल और इतने कम संवादों के साथ आता है कि उसे देख कर निम्न मध्यमवर्गीय किसी विवाहित स्त्री की जिंदगी की झलक देर तक मिलती रहती है. ज़ोया की दूसरी फिल्मों की ही तरह ये कहानी भी बेहद आम है लेकिन विजुअल ट्रीटमेंट के लेवल पर यह कहानी खास है. यह स्टोरी शबाना आज़मी की फिल्म अंकुर की याद भी दिलाती है बस फर्क यही है कि शबाना की जिंदगी अब शहर की कोई भूमि निभा रही है और उसकी जिंदगी का पूर्वार्ध है, उत्तरार्ध में क्या होगी ये कहना बहुत मुश्किल है.

दिबाकर बैनर्जी द्वारा निर्देशित तीसरी कहानी में मुख्य किरदार मनीषा कोईराला ने निभाया है. ये इस फिल्म की सबसे लेयर्ड और कॉम्पलेक्स स्टोरी कही जा सकती है. अपने पति के दोस्त के साथ अवैध संबंधों में जिंदगी का सुकून तलाशने वाली दो बच्चों की मां का किरदार बहुत इंट्रेस्टिंग है. इस प्लॉट पर बनी और किसी कहानी का नाम मुझे याद नहीं आता लेकिन याद आती है अपने पड़ोस के घर की एक घटना जिनसे हमारी बहुत करीबी थी. वहां दीदी जो अपने पति के शराब पीने और अनाप-शनाप पैसे खर्च करने की आदत से त्रस्त थीं उनका अफेयर अपनी ही एक सहेली के पति से हो जाता है जो उसे छोड़ कर किसी दूसरे आदमी के साथ रहने चली गयी थीं. इस कहानी में सेक्स बहुत था, डर बहुत था, दीदी की दो बच्चियां थीं, उनके कॉलेज और कस्बाई जीवन में मौजूद सहकर्मियों और रिश्तेदारों से छुप्पन-छुपाई थी. इसके बावजूद दीदी अपने पति से तलाक लेने को तैयार थीं लेकिन प्रेमी जिम्मेदारी लेने के मूड में नहीं था. जल्द ही दीदी को इस रिश्ते की सच्चाई समझ आ गयी. उन्होने अपने पति को सारी बात बता दी क्योंकि रिस्क लेना उन्होने सीख लिया था और खो देने का डर खत्म हो गया था. दीदी के आत्म-विश्वास से सनाका खाये पति महोदय सुधरने के लिये तैयार हो गये और साथ ही दीदी के ऊपर से सारी पाबंदियां भी हट गयीं. ज़ाहिर है पड़ोस की वो दीदी भी अब लिबर्टिना बनी हुई हैं और वो संबंध तो तभी समाप्त हो गया था.

करन जौहर द्वारा निर्देशित चौथी कहानी पर बाहर की एक फिल्म से मूल आइडिया लेने का आरोप है. बावजूद इसके उनकी फिल्मों ने पीढ़ी दर पीढ़ी भारतीयों तक यौनिक आधुनिकता का पैकेज ले जाने का जोखिम उठाया है भले ही वह कितना भी आधा-अधूरा क्यों ना रहा हो. ये कहानी भारतीय परिवेश में सबसे नयी कहानी कही जा सकती है. पति के साथ रात-दिन कमरा बंद करके पड़ी रहने वाली औरत को यौन सुख न मिलता हो यह अब भी अधिकांश महिलाओं के लिये सोच पाना कल्पना से परे हैं. महिलाओं का अपने चरम सुख और यौन फंतासियों को पूरा करने के लिये वाइब्रेटर का इस्तेमाल करना, संस्कारी घरों की संस्कृति के लिये कितनी विस्फोटक स्थिति पैदा कर सकता है, वही दृश्य सबसे मज़ेदार है.

तकनीक के जरिये महिलाओं का चरम सुख हासिल करना, बहुतों के लिये अनैतिक हो सकता है लेकिन समाज की हिप्पोक्रेसी को ढ़ोती महिला अपने लिये कोई कदम ना उठाये, ये कॉमन सेंस के परे तर्क है. जापान की तरह हमारे देश में भी महिलाओं को लिबरेट करने में ऐसे यंत्रों की भूमिका प्रमुख हो सकती है (यदि छद्म संस्कृति और राजनीति की जानलेवा चाशनी यूं ही पकायी जाती रही). करन जौहर की कहानी को इस फिल्म का चरम सुख कहा जा सकता है जिसने तकनीक के जरिये यौन सुख तलाशने वाले लोगों पर एक डिबेट शुरू करने की हिम्मत की है. स्त्रियों का ऑर्गैज्म यानी चरम सुख भारतीय परिप्रेक्ष्य में अमूमन नैतिकता की छद्म बहस और वर्गीय राजनीति की आलोचनाओं की फेंस के बीच कहीं अटका रहता है. लेकिन एक कोट के मुताबिक दुनिया कि आबादी कितनी कम होती यदि औरतों को उनके हिस्से का सुख दिये बगैर मर्द उनसे बच्चे पैदा नहीं कर सकते! सच ही :

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